Sunday 17 October 2021

कबीर दोहावली भाग 2

हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध । 
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥ 

राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस । 
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥ 

जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच । 
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥ 

तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार । 
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥ 

सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । 
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥ 

समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । 
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥ 

हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । 
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ 

कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । 
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ 

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । 
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ 

कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । 
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ 

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । 
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ 

जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । 
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । 
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥ 

लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । 
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥ 

भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । 
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥ 

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । 
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ 

अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । 
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ 

मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । 
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥ 63 ॥ 

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । 
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ 

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । 
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ 

सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ 

सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । 
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ 

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । 
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ 

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । 
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ 

जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । 
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ 

जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश । 
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ 

नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । 
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ 

आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । 
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ 

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । 
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ 

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । 
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥ 

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । 
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ 

बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात । 
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ 

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । 
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ 

फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त । 
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ 

दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद । 
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ 

दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । 
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥ 

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । 
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥ 

छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । 
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ 

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । 
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ 

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । 
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ 

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय । 
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ 

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । 
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ 

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक । 
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ 

मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष । 
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥ 

जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश । 
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥ 

काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय । 
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥ 

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह । 
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥ 

कबीर दोहावली भाग 1

दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय । 
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥ 

तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय । 
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥ 

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥ 

गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । 
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥ 

बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । 
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥ 

कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख । 
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥ 

सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । 
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥ 

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय । 
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥ 

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । 
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥ 

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥ 

जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । 
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥ 

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥ 

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥ 

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥ 

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । 
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥ 

शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । 
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥ 

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥ 

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥ 

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥ 

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । 
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥ 

जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल । 
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥ 

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । 
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
 
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । 
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥ 

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । 
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥ 

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । 
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥ 

जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । 
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥ 

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । 
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥ 

आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । 
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥ 

क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह । 
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥ 

गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । 
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥ 

दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय । 
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥ 

दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । 
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥ 

दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन । 
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ 

ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । 
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥ 

हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट । 
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥ 

कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । 
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ 

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । 
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ 

मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । 
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥ 

सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । 
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥ 

अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ । 
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ 

बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । 
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ 

अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट । 
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥ 

कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । 
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ 

पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । 
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥ 

बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । 
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥