Tuesday 20 August 2013

क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो..!!



बहुत हुआ अपना अपना घर बार, माँ का प्यार दुलार
क्या हो गया ज़रा देश का हाल  तो देखो
क्या कर लेगा अकेला अन्ना, कहते थे सियासी गलियारे
एक बुड़े ने बदल दी युवाओं  की चाल तो देखो

होसलों के खजानों को खंगाल कर तो देखो
अपनी रगों के लहू को उबाल कर तो देखो
झुक जाएगा आसमाँ, कदम चूमेगी मंजिले
अपनी आँखों मे सपनो को पाल कर तो देखो

सत्ता के नशे मे चूर कितना इन्सान तो देखो
भ्रस्टाचार की अग्नि मे जल रहा अरमान तो देखो
इरादों  मे  होती है  जीत, ताकतों मे नहीं
बुंद बुंद बढता, होसलों  का तूफान तो देखो

सत्तायें पलट सकती है, तस्वीरें बदल सकती है
भटके हैं रास्ते मगर, मंजिले फिर भी मिल सकती है
ज़रा बदल कर अपनी चाल तो देखो
क्या हो गया ज़रा देश  का हाल  तो देखो..!!

आस्था और विश्वास..!!



पर्वतारोहियों का एक दल एक अजेय पर्वत पर विजय पाने के लिए निकला. उनमें एक अतिउत्साही पर्वतारोही भी था जो यह चाहता था कि पर्वत के शिखर पर विजय पताका फहराने का श्रेय उसे ही मिले. रात्रि के घने अन्धकार में वह अपने तम्बू से चुपके से निकल पड़ा और अकेले ही उसने पर्वत पर चढ़ना आरंभ किया. गहरी काली रात में, जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, वह शिखर की ओर बढ़ता रहा. बहुत प्रयास करने के बाद शिखर जब कुछ ही दूर प्रतीत हो रहा था तभी अचानक उसका पैर फिसला और वह तेजी से नीचे की तरफ गिरने लगा. उसे अपनी मृत्यु सामने ही दिख रही थी लेकिन उसकी कमर से बंधी रस्सी ने झटके से उसे रोक दिया. घने अन्धकार में उसे नीचे कुछ नहीं दिख रहा था. रस्सी को जकड़कर ऊपर पहुँच पाना संभव नहीं था. बचने की कोई सूरत न पाकर वह चिल्लाया: – ‘हे ईश्वर… मेरी मदद करो!’

तभी अचानक एक गंभीर स्वर कहीं गूँज उठा – “तुम मुझ से क्या चाहते हो?”

पर्वतारोही बोला – “हे ईश्वर! मेरी रक्षा करो!”

“क्या तुम्हें सच में विश्वास है कि मैं तुम्हारी रक्षा कर सकता हूँ ?

“हाँ ईश्वर! मुझे तुम पर पूरा विश्वास है” – पर्वतारोही बोला.

“ठीक है, अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास है तो अपनी कमर से बंधी रस्सी काट दो…..”

यह सुनकर पर्वतारोही का दिल डूबने लगा. कुछ क्षण के लिए वहाँ एक चुप्पी सी छा गई और उस पर्वतारोही ने अपनी पूरी शक्ति से रस्सी को पकड़े रहने का निश्चय कर लिया.

अगले दिन बचाव दल को एक रस्सी के सहारे लटका हुआ पर्वतारोही का ठंड से जमा हुआ शव मिला. उसके हाथ रस्सी को मजबूती से थामे थे और वह धरती से केवल दस फुट की ऊँचाई पर था. यदि उसने रस्सी को छोड़ दिया होता तो वह पर्वतीय ढलान से लुढ़कता हुआ मामूली नुकसान के साथ जीवित बच गया होता.

ईश्वर में सम्पूर्ण आस्था और विश्वास रखना सहज नहीं है. ऐसी दशा में क्या आप अपनी रस्सी छोड़ देते..!!

Friday 9 August 2013

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है..!!



हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल? -
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है..!!

कुरीति..!!



एक व्यक्ति अपने दो पुत्रों को चिड़ियाघर ले गया. टिकट खिड़की पर प्रवेश टिकटों का मूल्य इस प्रकार लिखा था:

- छः वर्ष से छोटे बच्चों को निःशुल्क प्रवेश. छः वर्ष से बारह वर्ष तक के बच्चों के लिए पांच रुपये. अन्य, दस रुपये.

व्यक्ति ने टिकट बेचनेवाले को रुपये देते हुए कहा, “छोटा लड़का सात साल, बड़ा लड़का तेरह साल, और एक टिकट मेरा.”

टिकट बेचनेवाले ने कहा, “आप अजीब आदमी हैं! आप कम से कम दस रुपये बचा सकते थे. छोटे को छः साल का बताते और बड़े को बारह साल का. मुझे एक-एक साल का अंतर थोड़े ही पता चलता!”

“आपको तो पता नहीं चलता लेकिन बच्चों को तो उनकी उम्र पता है… और मैं नहीं चाहता कि वे इस बुरी बात से सीख लें और यह एक कुरीति बन जाए”..!!

Wednesday 7 August 2013

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों..!!


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है..!!

लिप्टन की चाय..!!



अंग्रेजों ने बहुत सारी चीज़ों से भारतीयों का परिचय कराया. चाय भी उनमें से एक है. मेरे दादा बताते थे कि जब शुरुआत में चाय भारत में आई तो उसका बड़ा जोरशोर से प्रचार किया गया लेकिन कोई उसे चखना भी नहीं चाहता था. ठेलों में केतली सजाकर ढोल बजाकर उसका विज्ञापन किया जाता था लेकिन लंबे अरसे तक लोगों ने चाय पीने में रुचि नहीं दिखाई.

एक-न-एक दिन तो मार्केटिंग का असर होना ही था. धीरे-धीरे लोग चाय की चुस्कियों में लज्ज़त पाने लगे. अब तो चाय न पीने वाले को बड़ा निर्दोष और संयमित जीवन जीने वाला मान लिया जाता है, जैसे चाय पीना वाकई कोई ऐब हो.

खैर. इस पोस्ट का मकसद आपको चाय पीने के गुण-दोष बताना नहीं है. चाय का कारोबार करनेवालों में लिप्टन कम्पनी का बड़ा नाम है. इस कंपनी की स्थापना सर थॉमस जोंस्टन लिप्टन ने की थी. वे कोई संपन्न उद्योगपति नहीं थे. उन्हें यकीन था कि लोग चाय पीने में रुचि दिखायेंगे और उन्होंने चाय के धंधे में जोखिम होने पर भी हाथ आजमाने का निश्चय किया.

शुरुआत में लिप्टन को धंधे में हानि उठानी पडी लेकिन वे हताश नहीं हुए. एक बार वे बड़े जहाज में समुद्री यात्रा पर निकले थे. रास्ते में जहाज दुर्घटना का शिकार हो गया. जहाज के कैप्टन ने जहाज का भार कम करने के लिए यात्रियों से कहा कि वे अपना भारी सामान समुद्र में फेंक दें. लिप्टन के पास चाय के बड़े भारी बक्से थे जिन्हें समुद्र में फेंकना जरूरी था. जब दूसरे यात्री अपने सामान को पानी में फेंकने की तैयारी कर रहे थे तब लिप्टन अपनी चाय के बक्सों पर पेंट से लिखने लगे “लिप्टन की चाय पियें”. यह सन्देश लिखे सारे बक्से समुद्र में फेंक दिए गए.

जहाज सकुशल विपदा से निकल गया. लिप्टन को विश्वास था कि उनकी चाय के बक्से दूर देशों के समुद्र तटों पर जा लगेंगे और उनकी चाय का विज्ञापन हो जायेगा.

लंदन पहुँचने पर लिप्टन ने दुर्घटना का सारा आँखों देखा हाल विस्तार से लिखा और उसे समाचार पत्र में छपवा दिया. रिपोर्ट में यात्रियों की व्याकुलता और भय का सजीव चित्रण किया गया था. लाखों लोगों ने उसे पढ़ा. रिपोर्ट के लेखक के नाम की जगह पर लिखा था ‘लिप्टन की चाय’.

अपनी धुन के पक्के लिप्टन ने एक दुर्घटना का लाभ भी किस भली प्रकार से उठा लिया. लिप्टन की चाय दुनिया भर में प्रसिद्द हो गई और लिप्टन का व्यापार चमक उठा..!!

कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ..!!



बहुत दिनों के बाद छिड़ी है वीणा की झंकार अभय
बहुत दिनों के बाद समय ने गाया मेघ मल्हार अभय
बहुत दिनों के बाद किया है शब्दों ने श्रृंगार अभय
बहुत दिनों के बाद लगा है वाणी का दरबार अभय
बहुत दिनों के बाद उठी है प्राणों में हूंकार अभय
बहुत दिनों के बाद मिली है अधरों को ललकार अभय

बहुत दिनों के बाद मौन का पर्वत पिघल रहा है जी
बहुत दिनों के बाद मजीरा करवट बदल रहा है जी
मैं यथार्थ का शिला लेख हूँ भोजपत्र वरदानों का
चिंतन में दर्पण हूँ भारत के घायल अरमानों का

इसी लिए मैं शंखनाद कर अलख जगाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ

अंधकार में समां गये जो तूफानों के बीच जले
मंजिल उनको मिली कभी जो एक कदम भी नहीं चले
क्रांति कथानायक गौण पड़े हैं गुमनामी की बाँहों में
गुंडे तश्कर तने खड़े हैं राजभवन की राहों में
यहाँ शहीदों की पावन गाथाओं को अपमान मिला
डाकू ने खादी पहनी तो संसद में सम्मान मिला

राजनीती में लौह पुरुष जैसा सरदार नहीं मिलता
लाल बहादुर जी जैसा कोई किरदार नहीं मिलता
नानक गाँधी गौतम का अरमान खो गया लगता है
गुलजारी नंदा जैसा ईमान खो गया लगता है
एरे-गैरे नथू-गैरे संतरी बन कर बैठे हैं
जिनको जेलों में होना था मंत्री बन कर बैठे हैं

मैंने देशद्रोहियों का अभिनन्दन होते देखा है
भगत सिंह का रंग बसंती चोला रोते देखा है
लोकतंत्र का मंदिर भी लाचार बना कर डाल दिया
कोई मछली बिकने का बाजार बना कर डाल दिया

अब भारत को संसद भी दुर्पंच दिखाई देती है
नौटंकी करने वालो का मंच दिखाई देती हैं
राज मुखट पहने बैठे है मानवता के अपराधी

मैं सिंहासन की बर्बरता को ठुकराने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ

आजादी के सपनो का ये कैसा देश बना डाला
चाकू चोरी चीरहरण वाला परिवेश बना डाला
हर चौराहे से आती है आवाजें संत्रासों की
पूरा देश नजर आता है मण्डी ताजा लाशों की
हम सिंहासन चला रहे हैं राम राज के नारों से
मदिरा की बदबू आती हैं संसद की दीवारों से

अख़बारों में रोज खबर है चरम पंथ के हमलों की
आँगन की तुलसी दासी है नागफनी के गमलो की
आज देश में अपहरणो की स्वर्णमयी आजादी है
रोज गोडसे की गोली के आगे कोई गाँधी हैं
संसद के सीने पर खूनी दाग दिखाई देता है
पूरा भारत जालिया वाला बाग़ दिखाई देता है

रोज कहर के बादल फटते है टूटी झोपडियों पर
संसद कोई बहस नहीं करती भूखी अंतडियों पर
वे उनके दिल के छालों की पीड़ा और बढ़ातें हैं
जो भूखे पेटों को भाषा का व्याकरण पढातें हैं
लेकिन जिस दिन भूख बगावत करने पर आ जाती है
उस दिन भूखी जनता सिंहासन को भी खा जाती है

जबतक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक सिंहासन को अपराधी बतलाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ

राजनीति चुल्लू भर पानी है जनमत के सागर में
सब गंगा समझे बैठे है अपनी अपनी गागर में
जो मेधावी राजपुरुष हैं उन सबका अभिनन्दन है
उनको सौ सौ बार नमन है, मन प्राणों से वंदन है
जो सच्चे मन से भारत माँ की सेवा कर सकते हैं
उनके कदमो में हम अपने प्राणों को धर सकते हैं

लेकिन जो कुर्सी के भूखे दौलत के दीवाने हैं
सात समुन्दर पार तिजोरी में जिनके तहखाने हैं
जिनकी प्यास महासागर है भूख हिमालय पर्वत है
लालच पूरा नील गगन है दो कोडी की इज्जत है
इनके कारण ही बनते है अपराधी भोले भाले
वीरप्पन पैदा करते हैं नेता और पुलिस वाले

अनुशाशन नाकाम प्रषाशन कायर गली कूचो में
दो सिंहासन लटक रहे हैं वीरप्पन की मूछों में
उनका भी क्या जीना जिनको मर जाने से डर होगा
डाकू से डर जाने वाला राजपुरुष कायर होगा
सौ घंटो के लिए हुकूमत मेरे हाथों में दे दो
वीरप्पन जिन्दा बच जाये तो मुझको फांसी दे दो

कायरता का मणि मुकुट है राजधर्म के मस्तक पर
मैं शाशन को अभय शक्ति का पाठ पढ़ाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ

बुद्धिजीवियों को ये भाषा अखबारी लग सकती है
मेरी शैली काव्य-शिल्प की हत्यारी लग सकती है
लेकिन जब संसद गूंगी शासन बहरा हो जाता है
और कलम की आजादी पर भी पहरा हो जाता है
जब पूरा जन गण मन घिर जाता है घोर निराशा में
कवि को चिल्लाना पडता है अंगारों की भाषा में

जिन्दा लाशें झूठ की जय जय कर नहीं करती
प्यासी आँखे सिंहासन वालो को प्यार नहीं करती
सत्य कलम की शक्तिपीठ है राजधर्म पर बोलेगी
समय तुला भी वर्तमान के अपराधों को तोलेगी
मनुहारों से लहू के दामन साफ़ नहीं होंगे
इतिहासों की तारिखों में कायर माफ़ नहीं होंगे

शासन चाहे तो वीरप्पन कभी नहीं बच सकता है
सत्यमंगलम के जंगल में कोहराम मच सकता है
लेकिन बड़े इशारे पाकर वर्दी सोती रहती है
राजनीती की अपराधों से फिक्सिंग होती रहती हैं
डाकू नेता और पुलिस का गठबंधन हो जाता हैं
नागफनी काँटों का जंगल चन्दन वन हो जाता है

अपराधों को संरक्षण है राजमहल की चौखट से
मैं दरबारों के दामन के दाग दिखाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ

कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ..!!

फादर कोल्बे..!!



संत मैक्सिमिलियन कोल्बे (1894-1941) पोलैंड के फ्रांसिस्कन मत के पादरी थे. नाजी हुकूमत के दौरान उन्हें जर्मनी की खुफिया पुलिस ‘गेस्टापो’ ने बंदी बना लिया. उन्हें पोलैंड के औश्वित्ज़ के यातना शिविर में भेज दिया गया.

एक दिन यातना शिविर में दैनिक हाजिरी के दौरान एक बंदी कम पाया गया. अधिकारियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वह भाग गया लेकिन बाद में उसका शव कैम्प के गुसलखाने में मिला. वह शायद भागने के प्रयास में पानी की टंकी में डूब गया था. अधिकारियों ने यह तय किया कि मृतक बंदी के भागने का प्रयास करने के कारण उसी बैरक के दस बंदियों को मृत्युदंड दे दिया जाए ताकि कोई दूसरा बंदी भागने का प्रयास करने का साहस न करे. जिन दस बंदियों का चयन किया गया उनमें फ्रान्सिजेक गज़ोनिव्ज़ेक भी था. जब उसने अपनी भावी मृत्यु के बारे में सुना तो वह चीत्कार कर उठा – “हाय मेरी बेटियाँ, मेरी बीवी, मेरे बच्चे! अब मैं उन्हें कभी नहीं देख पाऊँगा!” – वहां मौजूद सभी बंदियों की आँखों में यह दृश्य देखकर आंसू आ गए.

उसका दुःख भरा विलाप सुनकर फादर कोल्बे आगे आये और उसे ले जानेवालों से बोले – “मैं एक कैथोलिक पादरी हूँ. मैं उसकी जगह लेने के लिए तैयार हूँ. मैं बूढ़ा हूँ और मेरा कोई परिवार भी नहीं है”.

फ्रान्सिजेक के स्थान पर कोल्बे की मरने की फरियाद स्वीकार कर ली गई. फादर कोल्बे के साथ बाकी नौ बंदियों को एक कालकोठरी में बंद करके भूख और प्यास से मरने के लिए छोड़ दिया गया. फादर कोल्बे ने सभी बंदी साथियों से उस घड़ी में प्रार्थना करने और ईश्वर में अपनी आस्था दृढ़ करने के लिए कहा. वे बंदियों के लिए माला जपते और भजन गाते थे. भूख और प्यास से एक के बाद एक बंदी मरता गया. फादर कोल्बे अंत तक जीवित रहे और सबके लिए प्रार्थना करते रहे.

कुछ दिनों बाद जब कालकोठरी को खोलकर देखा गया तो फादर कोल्बे जीवित मिले. 14 अगस्त, 1941 के दिन उन्हें बाएँ हाथ में कार्बोलिक एसिड का इंजेक्शन देकर मार दिया गया. उन्होंने प्रार्थना करते हुए अपना हाथ इंजेक्शन लेने के लिए बढ़ाया था. जिस कालकोठरी में फादर कोल्बे की मृत्यु हुई अब वह औश्वित्ज़ जानेवाले यात्रियों के लिए किसी पावन तीर्थ की भांति है.

फादर कोल्बे द्वारा जीवनदान दिए जाने के 53 वर्ष बाद फ्रान्सिजेक गज़ोनिव्ज़ेक की मृत्यु 95 वर्ष की उम्र में 1995 में हुई. जब पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 1982 में फादर कोल्बे को संत की उपाधि दी तब वह उस समय वहां अपने परिवार के साथ उपस्थित था..!!

Thursday 1 August 2013

Kahin mille to usay ye kehna..!!



Kahin mille to usay ye kehna !

faseel-e-nafrat gira raha hoon
Ga’ay dinon ko bhula raha hoon
Wo apne waday se phir gaya hai
Mai apne wade nibha raha hun

Kahin mile to usay ye kehna

Na dil mai koi malal rakhe,
Hamesha apna khyal rakhe!
Apne ghum sare mujhko de day,
Aur tamam khushiyan sambhal rakhe!

Kahin mile to usay ye kehna

Mai tanha sawan bita chuka hun,
Mai sare arman jala chuka hun,
Jo shole bharke thay khwahishon k
Wo ansuon se bujha chuka hun..!!

Suno… Mujhe Rona Nahi Aata..!!



Mujhe Rona Nhi Aata.
Mujhe Khona Nhi Aata.
K Tum Bin Jeena Mushkil Hai.
Jo Dard Tum Dena Chahte Ho Mujhe Sehna Nhi Aata.

Tum To Reh Lo Ge Saath Kisi Aur K Mgr.
Main Kya Krun K Mujhe RASTA Badalna B Nhi Aata.

Tum To Waaqif Ho Andaz.E.Guftugu K.
Mujhe To Baat Krne Ka Salika B Nhi Aata.

Tum To Jeet Jate Ho Larr Jhagar Kar B.
Dekho Mujhe To Larna B Nhi Aata.

Tum To Khush Reh Lo Ge Mere Bin.
Dekho Tumhare Bin To Mujhe Jeena B Nhi Aata..!!