Wednesday 19 November 2014

जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आए..!!

जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आए
हम आज उसको बड़ी उलझनों में छोड़ आए,

अगर हरीफ़ों में हता तो बच भी सकता था
ग़लत किया जो उसे दोस्तों में छोड़ आए,

सफ़र का शौक़ भी कितना अजीब होता है
वो चेहरा भीगा हुआ आँसों में छोड़ आए,

फिर उसके बाद वो आँखें कभी नहीं रोयीं
हम उनको ऐसी ग़लतफ़हमियों में छोड़ आए,

महाज़-ए-जंग पे जाना बहुत ज़रूरी था
बिलखते बच्चे हम अपने घरों में छोड़ आए,

जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया
हम उन परिन्दों को फिर घोंसलों में छोड़ आए..!!

ये दरवेशों कि बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा..!!

 ये दरवेशों कि बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबास ऐ ज़िन्दगी फट जाएगा मैला नहीं होगा,

शेयर बाज़ार में कीमत उछलती गिरती रहती है
मगर ये खून ऐ मुफलिस है महंगा नहीं होगा,

तेरे एहसान कि ईंटे लगी है इस इमारत में
हमारा घर तेरे घर से कभी उंचा नहीं होगा,

हमारी दोस्ती के बीच खुदगर्ज़ी भी शामिल है
ये बेमौसम का फल है ये बहुत मीठा नहीं होगा,

पुराने शहर के लोगों में एक रस्म ऐ मुर्रव्वत है
हमारे पास आ जाओ कभी धोखा नहीं होगा..!!

जब साफगोई को फैशन बना लिया मैंने..!!

 जब साफगोई को फैशन बना लिया मैंने
हर एक शख्स को दुशमन बना लिया मैंने,

हुई न पूरी जरूरत जब चार पैसों की
तो अपनी जेब को दामन बना लिया मैंने,

शबे-फिराक* शबे-वसल* में हुई तब्दील
खयाले-यार को दुल्हन बना लिया मैंने,

चमन में जब ना इज़ाज़त मिली रिहाइश की
तो बिज़लीयों में नशेमन बना लिया मैंने..!!

मोहब्बत में तुम्हे आंसू बहाना नहीं आया..!!

 मोहब्बत में तुम्हे आंसू बहाना नहीं आया,
बनारस में रहे और पान खाना नहीं आया !

न जाने लोग कैसे है मोम कर देते है पत्थर को,
हमें तो आप को भी गुदगुदाना नहीं आया!

शिकारी कुछ भी हो इतना सितम अच्छा नहीं होता,
अभी तो चोंच में चिड़िया के दाना तक नहीं आया..!!

ये कैसे रास्ते से लेके तुम मुझको चले आए,
कहा का मैकदा इक चायखाना तक नहीं आया !

मुहाजिर नामा..!!

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।

ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं ।

महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।

वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं ।

हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं ।

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं ।

उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं ।

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं ।

उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं ।

हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं ।

कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं ।

वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।

अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं ।

मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।

जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं ।

तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं ।

सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं ।

हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं ।

गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं ।

तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं ।

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं ।

हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।

थकन को ओढ़ कर बिस्तर में जाके लेट गए..!!

 थकन को ओढ़ कर बिस्तर में जाके लेट गए
हम अपनी कब्र -ऐ -मुक़र्रर में जाके लेट गए,

तमाम उम्र हम एक दुसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जाके लेट गए,

हमारी तश्ना नसीबी का हाल मत पुछो
वो प्यास थी के समुन्दर में जाके लेट गए,

न जाने कैसी थकन थी कभी नहीं उतरी
चले जो घर से तो दफ्तर में जाके लेट गए,

ये बेवक़ूफ़ उन्हे मौत से डराते हैं
जो खुद ही साया -ऐ -खंजर में जाके लेट गए,

तमाम उम्र जो निकले न थे हवेली से
वो एक गुम्बद -ऐ -बेदर में जाके लेट गए,

सजाये फिरते थे झूठी अना को चेहरे पर
वो लोग कसर -ऐ -सिकंदर में जाके लेट गए..!!

एक करोड़ का सवाल..!!

टीवी कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में एक करोड़ के अंतिम सवाल पर मुस्कुराते हुए बिग बी ने प्रतियोगी से कहा- ‘आप बहुत भाग्यशाली हैं, इस सीट पर बैठ कर एक करोड़ के सवाल का जवाब देने वाले आप पहले व्यक्ति हैं। जवाब आपको सोच समझ कर देना है। इसका जवाब सही देने पर आपको मिलेंगे एक करोड़ रुपये, प्रसिद्धि, सम्मान और गलत जवाब देने पर आप निराश हो कर लौटेंगे, क्योंकि आपने पचास लाख कमाने का भी अवसर खो दिया है। उन्होंने प्रतियोगी की तरफ व्यंग्यपपूर्ण मुस्कान बिखेरी।

प्रतियोगी ने कहा-‘जी।
‘कैसा लग रहा है आपको।' बिग बी ने पूछा।
जवाब मिला- बहुत रोमांचित हूँ।‘
मैं भी ।‘ बिग बी ने कहा। मैं भी देखना चाहता हूँ कि कौनसा सवाल है, एक करोड़ का। मुझे भी नहीं मालूम, विश्वास कीजिये मुझे भी नहीं मालूम।'

सभी हँसने लगे। कुर्सी सँभालते हुए बिग बी ने कार्यक्रम आगे बढ़ाया। वे बोले- ’तो आप तैयार हैं, एक करोड़ के सवाल को सुनने, पढ़ने और अपना भाग्य आजमाने के लिए?’
’हाँ।' प्रतियोगी ने भी मुसकुराकर कहा।
बिग बी ने हाथ मसलते हुए कहा- ‘तो लीजिये, आपका एक करोड़ का सवाल।' उन्होंने सवाल पहले अँग्रेजी में पढ़ा और फिर उसे हिदी में दोहराया ‘आज देश में बढ़ते असंतोष, भ्रष्टाड़चार, महँगाई और अनेक समस्याओं के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेमदार कौन है? और कहा- ‘जल्दबाजी नहीं, आपके पास बहुत समय है, सही जवाब आपको करोड़पति बना देगा और ग़लत जवाब आपको----आप--- समझते –ही-- हैं।'
प्रतियोगी बहुत देर तक सोचता रहा। बिग बी ने कहा- ‘आपके पास सारी सुविधाएँ भी खत्म हो गयी हैं। आप किसी से पूछ भी नहीं सकते। अब आपको ही निर्णय लेना है कि ए- जनता, बी- नेता, सी- सरकार और डी- पुलिस, इसमें से कौन-सा विकल्प चुनना है।'

थोड़े से सन्नाटे के बाद, प्रतियो‍गी ने कहा- ‘सरकार।' बिग बी ने कहा- ‘सी, सरकार।‘
"आप पूरी तरह से आश्वस्त हैं? जल्दमबाजी नहीं करें। सोचें, कि इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कौन है, जनता, नेता, सरकार या पुलिस। एक बार जवाब ताला लग गया, तो आपके सारे रास्तेज बंद, फि‍र मैं भी कुछ नहीं कर पाउँगा।'
’जी। मैं जानता हूँ, मेरा जवाब है ‘सी’ सरकार’।' प्रतियोगी ने कहा।

’तो आपको पूरा विश्वास हैं, सी, स—र—का—र।' बिग बी ने गंभीरता से कहा-‘तो लॉक कर दिया जाये?' ’जी।' ’तो लॉक किया जाये। कम्प्यूटर जी, जवाब लॉक करें, आपका जवाब है, सी-सरकार।'

जवाब लॉक कर दिया गया। थोड़े सन्नाटे के बाद बजर बजा। बिग बी अपनी सीट से उठ खड़े हुए और बोले- ‘ओ---ह।’ बैठे हुए प्रतियोगी के साथ-साथ कार्यक्रम में सम्मिलित लोगों में कौतूहल जाग गया। वे भी उठ कर कर खड़े हो गये।
’यह जवाब ग़लत है।' बिग बी के बोलते ही सन्नाटा छा गया। बिग बी ने प्रतियोगी से कहा- ‘आपका जवाब ग़लत था।
सही जवाब है- ‘जनता..!!

आत्महत्या..!!

वे दोने बड़ी देर से गाँव में थोड़ी दूरी पर स्थित लाइनों का पास घुम रहे थे। कभी इधर से उधर कभी उधर से इधर। वह रेलवे पटरी के इस ओर था, जब कि वह दूसरी ओर थी। एक से दूसरी ओर जाते हुए जब भी वे एक दूसरे की सीध में आते, कनखियों से एक दूसरे की ओर देखने लगते। दोनों एक दूसरे की स्थिति को समझ भी रहे थे।

इसी प्रकार जब काफी देर बीत गयी तो लड़के ने साहस जुटाते हुए पूछा- आप शायद किसी की प्रतीक्षा कर रही हैं।
-हाँ... और आप? लड़की अब थोड़ा आगे आ गई थी। दोनो रेल पटरी के साथ वाले कच्चे पथ से थोड़ा ऊपर कटे फटे पत्थरों पर आ खड़े हुए थे।
-मैं भी किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कह कर लड़का फिर कच्चे पथ पर जिधर से आया था, उसी ओर बढ़ गया। लड़की भी उसके विपरीत वाली दिशा की ओर चल दी। अब जब वे एक दूसरे के निकट आए तो उन्होंने एक दूसरे की ओर कनखियों ने नहीं, अपितु थोड़ा-सा मुस्कुरा कर देखा।

अचानक लड़के ने लड़की के पास आकर कहा- सच बताइये कहीं आप निराश होकर... नहीं, ऐसा मत कीजियेगा। आप बहुत अच्छी हैं, सुंदर भी।
लड़का चलने को हुआ तो इस बार लड़की ने पूछ लिया- क्या आप भी... न-न, कोई गलत कदम न उठाइयेगा। कितने आकर्षक हैं आप...युवा भी।
-हाँ... इस बार बारी फिर लड़के की थी। - सच कहूँ...आया तो मैं सचमुच खुदकुशी करने के लिये ही था, किंतु शायद गाड़ी लेट हो गई हैं।
-मैं भी यदि सच कहूँ तो इरादा मेरा भी कुछ यही था... किन्तु आप हैं कि यहीं मंडराए जा रहे थे। मेरे आसपास। इसलिये आत्महत्या का अवसर ही नहीं मिला।

दोनो अब थोड़ा हटकर एक वृक्ष की छाया में जा बैठे थे, एक दूसरे के सामने।
-एक बात पूछूँ? लड़का जैसे संकोच को तोड़ना चाहता हो- आप आत्महत्या क्यों करना चाहती थीं? क्या किसी से प्रेम व्रेम का चक्कर...
-चक्कर नहीं, मैं सच में उससे प्रेम करती थी, परन्तु उसने मुझसे छल किया...वह शायद मुझसे नहीं मेरे जिस्म से प्यार करता था... धोखेबाज!... और आप? लड़की थोड़ा आगे सरक आई थी।
-आज मेरा विवाह होना तय था, परन्तु जिससे मेरा विवाह होने जा रहा था, वह एक रात पहले ही घर से भाग गई... शायद वह किसी और से प्रेम करती हो... पर मैं तो कहीं का भी नहीं रहा न! लड़के ने अचानक उसका हाथ पकड़ लिया था।

दोनों बड़ी देर ऐेसे ही बैठे रहे। अचानक धरती पर उपजे कंपन से दोनों ने जाना कि गाड़ी आने वाली है। अचानक लड़के ने कहा- मैंने इरादा बदल लिया है... मैं आत्महत्या नहीं करना चाहता। आप...?
- मैं भी तो मरना नहीं चाहती किन्तु...! अब लड़की ने भी लड़के का हाथ पकड़ लिया था।

इसी बीच गाड़ी बाएँ से आकर दायें को चली गई। अचानक लड़के ने पूछा क्या में सचमुच आकर्षक हूँ?
हूँ...! सच में। और मैं क्या सचमुच सुंदर हूँ? लड़की ने आँखें नीचे झुका लीं थीं।
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद लड़की ने कहा- मुझे घर ले चलो... उसी वेदी पर जहाँ वह लड़की नहीं आ सकी। मैं...
- नहीं ! वह स्थान शायद आपके योग्य अब नहीं रहा। हम अपना अलग घर बसाएँगे...आओ चलें।
दोनो एक दूसरे का हाथ थामे वापस शहर की ओर चल पड़े।

महँगाई डायन..!!

संक्रान्ति के बाद आज पहली बार बाज़ार आया था। टुसू के बाद की शांति खत्म होने लगी थी। सुबह-सुबह की ठण्ड में जीवन अपनी भाग-दौड़ में लगा था। सब्जियों से लदी ऑटो को रास्ता देने के लिए एक किनारे हुआ तो पकते गुड़ की खुशबू ने रोक लिया। मैं खड़ा होकर अपने आस-पास की हलचल देखने लगा. आते-जाते लोगों के बीच से निगाहें उन हाथों पर रुक गयी जो मुढ़ी-गुड़ के 'लाई' बना रही थी। खड़े होकर मैंने मुँह से सांस छोड़ी। हवा में धुंध की एक चादर सी बन गयी। मैं मुस्कुराया। मुझे एक बच्चे जैसा मज़ा आया।

एक हाथ पॉकेट में डाले, दूसरे हाथ में थैला हिलाता मैं एक दुकान के सामने था।
"कैमोन आछो काकी?"
"भालो...."
आवाज़ ने शब्दों का साथ नही दिया।
"की चाई?"
"फूल कितने का?" मैं अब अपनी औकात पर आ गया था क्योंकि बांग्ला में मेरे हाथ जरा तंग हैं।
"आपसे क्या दाम करेगा बाबू? २० में बेच रहा है, आपको १९ में दे देगा..."
"और बैंगन? अरे हाँ... मूली कितने की है?"
काकी अनमने ढंग से सब्जी के टोकरे इधर उधर करती रही।
"कोई दिक्कत ....?" मेरे अन्दर का बच्चा काफुर हो चूका था।
"क्या बोलेगा बाबू, रमना गुस्सा है. एई लेके मन नई लगता है।"
"रमना... कौन?"
"मेरा लड़का, बाबू. कंपनी भीतरे ठीकादारी में काम करता है. आपको क्या चाहिए बाबू?"
"एक फूलगोभी, आधा किलो बैंगन और आधा किलो मूली दे दो।"
"गोभी का डंठल और मूली का पत्ता तोड़ के रख लेगा बाबू?"
"हाँ..हाँ. गोभी के डंठल और मूली के पत्ते तोड़ कर रख लेना।"
"ठीक है बाबू...." और उसने सारा सामान मेरे थैले में डाल दिया। मैंने पैसे दिए और घूमा कि एक युवक मुझे लगभग धकियाता दुकान की किनारे वाली गली में घुसा।

मैं बुरा-सा मुँह बना कर आगे बढ़ गया। मेरे पीछे का कोलाहल बढ़ते-बढ़ते शोर और फिर झगडे का रूप ले चुका था। जी में आया कि देखूं, आखिर हो क्या रहा है; किन्तु मुझ जैसा लेखक-टाईप आदमी ऐसी स्थितियों से बच कर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझता हैं। घूमते-घूमते अब मैं सब्जी-मंडी के दूसरी ओर हैंडपंप तक आ गया था। लोगों की लम्बी कतार के बीच काकी भी अपनी बाल्टी लिए दीख गयी।

मैं मुस्कुराया, "आपकी दुकान के पास क्या हल्ला-हंगामा हो रहा था?"
काकी कतार से बाहर आ गयी थी, "बाबू, आप ही बताओ; हम सब्जी काहे को बेचता है? पेट के लिए ना. लड़का को पढ़ा दिया, अब नौकरी भी लगा है, माँ कितना दिन खिलायेगा?"
"पर हुआ क्या?"
"पहले हम बचा-हुआ सब्जी उसका घर-वाली को दे आता था। उसका खर्चा बच जाता था। जबसे सब्जी महँगा हुआ है, हम अपने-ही गोभी का डंठल और सूखा साग खा रहा है, उसको कहाँ से देगा? उसको दे देगा तो महाजन का कर्जा कौन तोड़ेगा?" काकी की आँखें भर आयी थी। आँखों में दिल का दर्द छलक आया। मैं खामोश हो गया। कुछ समझ नही आया तो मैं आगे बढ़ गया. पास के सैलून से गाने की आवाज़ आ रही थी, "सखी सैयां तो खूबै कमात है, महँगाई डायन खाय जात है"।

तनाव..!!

साल में एक बार छोटा आता ही है परिवार सहित। और जब भी छोटा आता है बड़े के दिमाग में एक तनाव बना रहता है। ये तनाव तब तक बना रहता है जब तक छोटा इस घर में रहता है। यह बात वह किसी से कहता नहीं, किसी को मालूम भी नहीं होने देता, अपनी पत्नी को भी नहीं।
ये तनाव क्यों होता है जानता है वह।
जैसे ही फोन पर कबर मिलती है कि छोटा आ रहा , तब घर का नक्शा ही बदल जाता है। पूरे घर की साफ-सफाई होती है सोफे के कवर और खिड़कियाँ, दरवाजे के पर्दे बदल दिये जाते हैं। ये सब माँ ही करती है। उसकी समझ में नहीं आता कि क्यों? बैंक में मैनेजर है छोटा। ऊँची पोस्ट पर है। ऊँची सोसायटी में उठता बैठता है, शायद इसी वजह से। छोटा चाय नहीं, काफी पीता है। बच्चे हार्लिक्स पीते हैं। खाने पीने पर खास ध्यान दिया जाता है। माँ उसके ही बच्चों में खोई रहती है।
इस बीच वह यह भी महसूस करता है कि जब तक छोटा इस घर में रहता है उसका महत्त्व कम हो जाता है। किसी भी बात के लिये उससे सलाह नहीं ली जाती, नही उससे कुछ पूछा जाता है। पिताजी बैठे बैठे छोटे से ही बतियाते रहते हैं। यदि वह वहाँ पहुँच जाए तो चुप हो जाते हैं। बस, यही कारण है उसके तनाव का, वह महसूस करता है।
मोटर साइकिल स्टैंड पर खड़ी करते हुए उसने देखा कि छोटा और पिताजी ड्राइंग रूम में बैठे हुए बातें कर रह हैं। सामने टीवी चल रहा है। माँ उठकर दरवाजे पर आ गयी। माँ ने पूछा, "आज बहुत देर कर दी, कहाँ था?
"कहीं नहीं, यहीं ऐसे ही।" कहता हुआ वह अपने कमरे की ओर बढ़ गया। वह साफ झूठ बोल गया। तनाव की वजह से वह पिक्चर हाल में जाकर बैठ गया था। पिक्चर छूटने के बाद भी वह इधर-उधर घूमता रहाष रात के पूरे ग्यारह बजे तक।
वह कमरे में घुसा। बच्चे सो चुके थे। उसकी पत्नी पलंग पर लेटी हुई कोई मैगजीन पढ़ रही थी। कपड़े उतार कर वह बाथरूम में फ्रेश होने चला गया। वहाँ से आया तो तौलिये से हाथ मुँह पोंछते हुए पत्नी से बोला, "खाना लगा दो... बहुत भूख लगी है।"
"
अकेले ही खाओगे?" पलंग से उठती हुई पत्नी बोली।
"क्यों"?
"पिताजी और भाई साहब भी बिना खाना खाए बैठे हैं अभी तक... उन्होंने भी खाना नहीं खाया है। कब से तुम्हारी राह देख रहे हैं।" पत्नी ने कहा।
"अरे, उन्हें खा लेना चाहिये था।"
कभी तुम्हारे बगैर खाया है उन्होंने सब एक साथ ही तो खाते हैं। पत्नी ने कहा और खाना लगाने चली गई।

वह ठगा सा खड़ा रह गया उसका गहरा तनाव बर्फ बनकर पिघल गया।
खाना खाने के बाद वह पूरी तरह तनावमुक्त था।

Tuesday 18 November 2014

बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है..!!

बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेष बदल कर मेरी तलाश में है।

मैं एक कतरा हूं मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है ।

मैं देवता की तरह कैद अपने मन्दिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है।

जिसके हाथ में एक फूल देके आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है..!!

ग़मों ने बाँट लिया मुझको ख़ज़ाने की तरह..!!

ग़मों ने बाँट लिया मुझको ख़ज़ाने की तरह
बिखर गया हूँ हर गली में फ़साने की तरह,

मुझे कुछ इस तरह से ढ़ूँढ़ रही है गर्दिश
के जैसे मै हूँ शिकारी के निशाने की तरह,

के रात रात न हो, कोई चिता हो जैसे
के जैसे ख़्वाब हों जलने के बहाने की तरह,

मै कोई संग न था मै तो एक शीशा था
पटक दिया मुझे पत्थर पे ज़माने की तरह,

ये वहम ये ख़लिश ये वफ़ा-मिजाज़ ज़ेहन
इन्होने कर दिया मुझको दीवाने की तरह..!!

कहने को कह गए कई बात ख़ामोशी से..!!

कहने को कह गए कई बात ख़ामोशी से
कटते-कटते कट ही गई रात ख़ामोशी से,

न शोर-ए-हवा, न आवाज़-ए-बर्क़ कोई
निगाहों में अपनी हर दिन बरसात ख़ामोशी से,

शायद तुम्हें ख़बर न हो लेकिन यूँ भी
बयाँ होते हैं कई जज्बात ख़ामोशी से,

दिल की दुनिया भी कितनी ख़ामोश दुनिया है
किसी शाम हो गई इक वारदात ख़ामोशी से,

माईले-सफर हूँ, बुझा-बुझा तन्हा-तन्हा
पहलू में लिए दर्द की कायनात ख़ामोशी से,

मुट्ठी में रेत उठाये चला था जैसे मैं
आहिस्ता-आहिस्ता सरकती गई हयात ख़ामोशी से,

मिटा मिटा कर तेरी तस्वीरें बनाईं है मैंने..!!

अक्सर वो ही बातें बा_रहां दोहराईं हैं मैंने
मिटा मिटा कर तेरी तस्वीरें बनाईं है मैंने,

जिस हंसीं फरेब से ता_उम्र तौबा किया था
फिर वो ही गज़लें आज महफिल मे गाईं हैं मैंने,

मेरी आँखों के अब कोई सागर ना लुटे
बहुत टूट हूँ तब ये नदियाँ बहाईं है मैंने,

मेरी आदत में नही था यारों दर्द रोना
बहुत बेबस में ये मजबूरियाँ सुनाई है,

मैंने मुद्दतों बाद फिर हँसते देखा है उनको
उनकी तकलीफें आज ख़ुदा को बातईं है मैंने,

फिर जीने की दिल को हसरत सी हुई है
एक बार फिर कमजोरियाँ जताईं है मैंने..!!

विवशता..!!

कॉलेज छोड़ने के बाद यह हमारी पहली मुलाक़ात थी। मित्र को न जाने कैसे पता चल गया कि मैं इस कॉलोनी में हूँ। कमरे में बैठते ही मैंने आवाज़ लगाई, ''सुनीता! देख, आज कौन आया है?''
पत्नी संभवतः घर पर नहीं थी। उत्तर नहीं मिला। इतने में मेरी पाँच वर्षीय लाड़ला आ धमका और पैरों से लिपटते हुए बोला, ''पापा! पापा! मम्मी गुप्ता आंटी के घर गई हैं।''

रोज़ का हाल है यह! किसी न किसी चीज़ के लिए पत्नी को पड़ोस में भागना पड़ता है। माह के आखिरी दिन थे। मित्र के अकस्मात आगमन से मैं मुश्किल में फँस गया था।
मित्र ने ध्यान भंग किया, ''और कितने बच्चे हैं... राजेश?''
''दो ओर हैं- एक लड़का... एक लड़की, दोनों स्कूल गए हैं!'' मैंने बरबस मुस्कराने का यत्न किया।
''अब और नहीं होने चाहिए।'' मित्र की फीकी हँसी बड़ी देर तक कमरे में लटकी रही।
समय निकलता जा रहा था और अभी तक हम चाय नहीं पी पाए थे। पत्नी की अनुपस्थिति खलने लगी। ''शायद, पत्नी स्कूल चली गई- बच्चों को लेने। आज हाफ डे है न!''
मैंने अपनी कमज़ोरी छिपाई। सच्ची-झूठी बातें कब तक झेलता। मैंने बबूल से कहा, ''बेटा! ज़रा देख तो आ मम्मी को। कहीं बिहारिन आँटी के घर न हों। अभी तक तो हम दो बार चाय पी चुके होते।''
''छोड़ भी यार। जब से बैठा हूँ। चाय की रट लगा रखी है। मैं हर पंद्रहवें दिन दिल्ली आता हूँ, फिर कभी पी लेंगे चाय... भाभी के हाथ की। मुझे चलने दे अब!'' यह कहकर मित्र उठ खड़ा हुआ।
मैंने रोकना चाहा पर वह नहीं माना और बबलू को दस का नोट थमाकर बाहर निकल आया। मैंने बबलू को खींचकर झट से अंदर किया और उसे समझाया, ''तुम यहीं रहना। मम्मी से कहना पापा बाज़ार गए हैं।''
बबलू सिर खुजलाता रह गया।
अब हम दोनों सड़क नाप रहे थे। मैंने कहा, ''यार! इतने दिनों बाद मिले और एक कप चाय भी न पिला पाया। घर न सही चलो किसी दुकान में बैठकर पी लेते हैं।''
हम दोनों एक ढाबे में बैठ गए। चाय के सा समोसे भी मँगा लिए थे। चाय पी चुकने के बाद मैंने कुछ हल्कापन महसूस किया। मैंने बड़े रोब में दुकानदार को पैसे बढ़ाए! यह क्या... मेरा हाथ काँप रहा था। दुकानदार बोला, ''बाबू जी! आज इतनी सर्दी नहीं है... फिर भी...।''
मेरे हाथ में बबलू को दिया गया मित्र का वह दस रुपए का नोट फड़फड़ा रहा था। शायद मित्र न समझ पाया हो। फिर भी मेरा हाथ बड़ी देर तक काँपता रहा।

बेबस विद्रोह..!!

उस दिन तो अजब हो गया। पलभर में हंगामा खड़ा हो गया। सुशीला अवाक खड़ी चुपचाप पार्वती का मुँह देख रही थी। कच्छा भीड़े हुए वह घायल शेरनी की तरह दहाड़ रही थी।
``मालकिन हम गरीब हैं। आपके घर में झाड़ू-बुहारू करते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि हमारी कोई इज़्ज़त-विज़्ज़त नहीं है। आप लोगों को जब जो जी चाहे बोल लीजिए।'' बोलते-बोलते वह हाँफने लगी थी।
हाथ में पकड़े झाड़ू को उसने फेंक दिया और मालकिन की तरफ़ आँखें फाड़कर देखने लगी।
''अरे पार्वती क्या हुआ शांत हो जा। आखिर मैं भी तो सुनूँ बात क्या है? ऐसा क्या हुआ कि तूने सारा घर सर पर उठा लिया?'' पार्वती को शांत करती हुई सुशीला ने पूछा।
मालकिन की प्यार भरी बातों ने पार्वती को भीतर तक भींगो दिया। उसकी आँखें छलछला आईं। स्नेह पाकर उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा। सुबकते हुए उसने कहा, ''मालकिन! अब मुझसे ई धर में काम नहीं होगा। जहाँ आदमी की इज़्ज़त न हो, वहाँ तो पल भर भी नहीं रुकना चाहिए। मालकिन! आप मेरा हिसाब कर दें। मैं दूसरी जगह चली जाऊँगी।''
''कर ले अपना हिसाब-किताब और फूट यहाँ से। नहीं तो...'' यह सुशीला की बहू की आवाज़ थी।
''नहीं तो, क्या कर लेंगीं आप? बोलिए न बीबी जी! मैं मुफ़्त के पैसे नहीं लेती। हाड़ तोड़ती हूँ तो पैसे लेती हूँ। फिर धौंस किस बात की?''
''अरी पार्वती! तू बहू की बातों पर न जा! उसने अभी दुनियादारी कहाँ देखी है। और तू बता, तू तो मुझे माँ जैसा आदर देती है। मैं भी तुझे बेटी की तरह मानती हूँ। तू बता, अगर तू सचमुच मेरी बेटी होती, तो क्या बहू के इतना कहने पर मुझे छोड़कर चली जाती?'' डबडबाई आँखों से सुशीला ने पार्वती को देखते हुए कहा।
सुशीला की डबडबाई आँखों को देखकर पार्वती के मन का गुस्सा ख़त्म हो गया था। उसने कुछ कहा नहीं। वह चुपचाप उठी और अपने को काम में लगा दिया।