Saturday 21 December 2013

झाँसी की रानी..!!



सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

किस्सा दोस्ती का..!!



दो बूढ़े आदमी काफी सालों से अच्छे दोस्त थे दोनों की उम्र अब लगभग 90 वर्ष के आसपास होगी!

एक दिन उनमें से एक दोस्त बहुत बीमार हो गया उसका दूसरा दोस्त उसे रोज मिलने के लिए आता था और रोज वे अपने दोस्ती के किस्से दोहराते थे!

उन्हें लगभग अब यकीन हो चला था कि जो बीमार था वह चंद दिनों का ही मेहमान है!

एक दिन उसके बूढ़े दोस्त ने बिस्तर पर पड़े अपने दोस्त से कहा, देखो जब तुम मर जाओगे, मेरे लिए एक काम जरुर करना!

बिस्तर पर पड़े दोस्त ने पूछा, कौन सा काम?

तुम मरने के बाद स्वर्ग में क्रिकेट खेलतें है या नहीं खेलते इसके बारे में मुझे जरुर बताओगे!


दोनों ही क्रिकेट के बहुत दिवाने थे. क्यों नही! जरुर बिस्तर पर पड़े दोस्त ने कहा!




और एक दो दिन में ही बीमार पड़ा दोस्त भगवान को प्यारा हो गया!




कुछ दिन बाद जो जिंदा बूढ़ा दोस्त था उसे नींद में अपने मरे हुए दोस्त की आवाज सुनाई दी!  ”तुम्हारे लिए मेरे पास दो खबरें है…एक बुरी और एक अच्छी …”

दोस्त्: अच्छा तो सुनाओ क्या है खबर मेरे लिए. पहले अच्छी खबर बताना भाई.


 मरा हुआ दोस्त: अच्छी खबर यह है कि स्वर्ग में क्रिकेट खेलतें है!



 और उसने सपने में ही बड़बड़ाते हुए पूछ लिया और बुरी खबर?

दूसरे दोस्त ने कहा बुरी खबर यह है कि तुम्हें आने वाले बृहस्पतिवार के मैच में बोलिंग करनी है!:) :) :) :)

Monday 9 December 2013

रेगिस्तान में दो मित्र..!!


दो मित्र रेगिस्तान में यात्रा कर रहे थे। सफर में किसी मुकाम पर उनका किसी बात पर वाद-विवाद हो गया। बात इतनी बढ़ गई कि एक मित्र ने दूसरे मित्र को थप्पड़ मार दिया। थप्पड़ खाने वाले मित्र को इससे बहुत बुरा लगा लेकिन बिना कुछ कहे उसने रेत में लिखा – “आज मेरे सबसे अच्छे मित्र ने मुझे थप्पड़ मारा”।

वे चलते रहे और एक नखलिस्तान में आ पहुंचे जहाँ उनहोंने नहाने का सोचा। जिस व्यक्ति ने थप्पड़ खाया था वह रेतीले दलदल में फंस गया और उसमें समाने लगा लेकिन उसके मित्र ने उसे बचा लिया। जब वह दलदल से सही-सलामत बाहर आ गया तब उसने एक पत्थर पर लिखा – “आज मेरे सबसे अच्छे मित्र ने मेरी जान बचाई”।

उसे थप्पड़ मारने और बाद में बचाने वाले मित्र ने उससे पूछा – “जब मैंने तुम्हें मारा तब तुमने रेत पर लिखा और जब मैंने तुम्हें बचाया तब तुमने पत्थर पर लिखा, ऐसा क्यों?”

उसके मित्र ने कहा – “जब हमें कोई दुःख दे तब हमें उसे रेत पर लिख देना चाहिए ताकि क्षमाभावना की हवाएं आकर उसे मिटा दें। लेकिन जब कोई हमारा कुछ भला करे तब हमें उसे पत्थर पर लिख देना चाहिए ताकि वह हमेशा के लिए लिखा रह जाए।”

Sunday 24 November 2013

मछली पकड़ने की कला..!!


लाओ-त्ज़ु ने एक बार मछली पकड़ना सीखने का निश्चय किया। उसने मछली पकड़ने की एक छड़ी बनाई, उसमें डोरी और हुक लगाया। फ़िर वह उसमें चारा बांधकर नदी किनारे मछली पकड़ने के लिए बैठ गया। कुछ समय बाद एक बड़ी मछली हुक में फंस गई। लाओ-त्ज़ु इतने उत्साह में था की उसने छड़ी को पूरी ताक़त लगाकर खींचा। मछली ने भी भागने के लिए पूरी ताक़त लगाई। फलतः छड़ी टूट गई और मछली भाग गई।

लाओ-त्ज़ु ने दूसरी छड़ी बनाई और दोबारा मछली पकड़ने के लिए नदी किनारे गया। कुछ समय बाद एक दूसरी बड़ी मछली हुक में फंस गई। लाओ-त्ज़ु ने इस बार इतनी धीरे-धीरे छड़ी खींची कि वह मछली लाओ-त्ज़ु के हाथ से छड़ी छुडाकर भाग गई।

लाओ-त्ज़ु ने तीसरी बार छड़ी बनाई और नदी किनारे आ गया। तीसरी मछली ने चारे में मुंह मारा। इस बार लाओ-त्ज़ु ने उतनी ही ताक़त से छड़ी को ऊपर खींचा जितनी ताक़त से मछली छड़ी को नीचे खींच रही थी। इस बार न छड़ी टूटी न मछली हाथ से गई। मछली जब छड़ी को खींचते-खींचते थक गई तब लाओ-त्ज़ु ने आसानी से उसे पानी के बाहर खींच लिया।

उस दिन शाम को लाओ-त्ज़ु ने अपने शिष्यों से कहा – “आज मैंने संसार के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत का पता लगा लिया है। यह समान बलप्रयोग करने का सिद्धांत है। जब यह संसार तुम्हें किसी ओर खींच रहा हो तब तुम समान बलप्रयोग करते हुए दूसरी ओर जाओ। यदि तुम प्रचंड बल का प्रयोग करोगे तो तुम नष्ट हो जाओगे, और यदि तुम क्षीण बल का प्रयोग करोगे तो यह संसार तुमको नष्ट कर देगा।”

कंचे..!!


एक लड़का और लड़की साथ में खेल रहे थे. लड़के के पास बहुत सुंदर कंचे थे. लड़की के पास कुछ टॉफियां थीं.


लड़के ने लड़की से कहा कि वह टॉफियों के बदले में अपने सारे कंचे लड़की को दे देगा. लड़की मान गई.


लेकिन लड़के ने चुपके से सबसे खूबसूरत दो-तीन कंचे दबा लिए और बाकी कंचे लड़की को दे दिए. बदले में लड़की ने अपनी सारी टॉफियां लड़के को दे दीं.


उस रात लड़की कंचों को निहारते हुए खुशी से सोई. लेकिन लड़का इसी सोच में डूबा रहा कि कहीं लड़की ने भी चालाकी करके उससे कुछ टॉफियां तो नहीं छुपा लीं!

Thursday 24 October 2013

नदी समंदर होना चाहती है..!!


आहत सी सभ्यता के द्वार पे
कब तक निहारे आँगन
बंधन तोड़ जाना चाहती है

युगों का बोझ लिये बहती रही
थकने लगी है शायद
कुछ विश्राम पाना चाहती है

अथाह जल-राशि की जो स्वामिनी
क्षितिज पार होती हुई
अंतरिक्ष समाना चाहती है

ओह पायी है मधुरता कितनी
न आँसू भी धो सके
ये नमकीन होना चाहती है

बंधन में छटपटाती है बहुत
पत्थरों को तराशती
अब विस्तार पाना चाहती है

बांटती रही है जग को जीवन
भीगी-भीगी सी नदी
समंदर हो जाना चाहती है..!!

इंसान नहीं भूत परोसते हैं भोजन..!!



आपको ऐसे रेस्‍त्रां की सैर कराने जा रहे हैं, जिसमें प्रवेश करने के बाद लोग थर-थर कांपने लगते हैं। ऐसा माहौल जिसमें डर लगना तो पक्‍का है, क्‍योंकि इस रेस्‍त्रां में इंसान नहीं भूत भोजन परोसते हैं और भोजन लाशों के बीच में होता है। चौंकिये नहीं, असल में हम बात कर रहे हैं दुनिया के अजब गजब रेस्‍त्रां में शामिल स्‍पेन के ला मासिया एंकांटडा की।

इस रेस्‍त्रां का कॉनसेप्‍ट असल में इसके इतिहास से प्रेरित है। इतिहास- 17वीं सेंचुरी में जोसफ मा रिएस ने मासिया और सुरोका ने मासिया सेंटा रोज़ा बनवाया। लेकिन आगे चलकर संपत्ति पर पारिवारिक विवाद हो गया। एक दिन सुरोका और रिएस ने कार्ड उछाल कर अपनी किसमत तय की। रिएस सारी संपत्ति हार गये। उनके परिवार ने घर छोड़ दिया और परिवार ने नई संपत्ति खड़ी की। देखते ही देखते यह इमारत खंडहर में तब्‍दील हो गई।

दो सदियों तक वीरान पड़ी रही इमारत में सुरोका के वंशजों ने 1970 में एक रेस्‍त्रां बनाया। उनका परिवार  मानता था कि इस इमारत को कोई शाप लग गया है, लिहाजा वहीं से उनके दिमाग में बात आयी कि क्‍यों न रेस्‍त्रां को हॉन्‍टेड रेस्‍त्रां के रूप में चलाया जाये। बस तब से लेकर आज तक ये रेस्‍त्रां हॉन्‍टेड रेस्‍त्रां के रूप में चल रहा है।
और भी हैं अजब-गजब रेस्‍त्रां यहां पर भूतों के वेश में वेटर भोजन परोस्‍ते हैं और भोजन का समय निर्धारित है। निर्धारित समय पर जब ग्राहक पहुंचते हैं, तो उनका स्‍वागत खून से सने चाकू, तलवार या हसिये से किया जाता है। आगे बढ़ते ही पंजा, या नकली लाशें जो देखने में एकदम असली हैं, लटकी मिलती हैं। भोजन करते वक्‍त ग्राहकों के लिये एक शो का संचालन किया जाता है, जिसे देखना हर किसी के बस की बात नहीं। 

इस रेस्‍त्रां की कुछ महत्‍वपूर्ण बातें:-

 रेस्‍त्रां में तीन घंटे का भोजन
रेस्‍त्रां में एक शो तीन घंटे का होता है यानी आपका भोजन भी तीन घंटे तक चलता है। इसमें तरह-तरह के भूत-प्रेत के वेश में लोग आपका मनोरंजन करने के साथ-साथ कुछ अलग परोसने की कोशिश करते हैं, जिनसे आप निश्चित रूप से डर जायेंगे।

दिल के मरीज व प्रगनेंट महिलाएं नहीं

इस रेस्‍त्रां में दिल के मरीजों, अस्‍थमा के मरीजों और प्रेगनेंट महिलाओं को भोजन करना मना है, क्‍योंकि डर के कारण दिल व अस्‍थमा के मरीजों की तबियत बिगड़ सकती है, वहीं गर्भ के अंदर बच्‍चे पर बुरा असर पड़ सकता है। साथ ही विकलांगों का प्रवेश भी वर्जित है।

14 साल से नीचे का प्रवेश प्रतिबंधित
इस रेस्‍त्रां में 14 साल से नीचे के बच्‍चों का प्रवेश पूरी तरह प्रतिबंधित है। ऐसा इसलिये क्‍योंकि हॉरर शो से वो डर सकते हैं।

ग्राहक भी शो का हिस्‍सा

खास बात यह  है कि इस हॉरर शो में ग्राहक महज मूक दर्शक बनकर  नहीं बैठ सकता। वो दुख भी डरावनी कहानियों का हिस्‍सा बन जाते हैं, जिस वजह से डर तो लाजमी है।

जादूगर का जादू
डराने के लिये जरूरी है, कि कुछ ऐसा हो, जो विस्‍मयकारी लगे, लिहाजा यहां जादूगर का जादू भी प्रस्‍तुत किया जाता है, जो पूरी तरह हॉन्‍टेड होता है।

प्रवेश करते ही शुरू होता है शो

इस रेस्‍त्रां में बुकिंग करते वक्‍त ही आपको समय दे दिया जाता है। खास बात यह है कि जैसे ही आप रेस्‍त्रां में प्रवेश करेंगे, वैसे ही शो शुरू हो जायेगा जो डराने के लिये काफी है। रेस्‍त्रां में मोबाइल लेजाना मना है।

रेस्‍त्रां में 60 सीटें
रेस्‍त्रां में कुल 60 सीटें हैं, लेकिन शो तभी आयोजित किया जाता है, जब कम से कम 35 लोग डिनर या लंच करने आयें। रेस्‍त्रां में प्रवेश बुकिंग के आधार पर ही दिया जाता है। रेस्‍त्रां की टेबल-चेयर व इंटीरियर इस तरह बनाया गया है, जैसे कोई भूतों का अड्डा हो।

भूतों के वेश में वेटर

यहां पर भूतों के वेश में वेटर भोजन परोस्‍ते हैं और भोजन का समय निर्धारित है। निर्धारित समय पर जब ग्राहक पहुंचते हैं, तो उनका स्‍वागत खून से सने चाकू, तलवार या हसिये से किया जाता है।


लाशों के बीच भोजन

आगे बढ़ते ही पंजा, या नकली लाशें जो देखने में एकदम असली हैं, लटकी मिलती हैं। भोजन करते वक्‍त ग्राहकों के लिये एक शो का संचालन किया जाता है, जिसे देखना हर किसी के बस की बात नहीं।

अकबर और वीरबल का मिलन..!!


अकबर को वीरबल कैसे मिले, इसके बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। लेकिन उनमें कोई भी पूर्णतः विश्वसनीय नहीं है। इस बारे में जो कथा सबसे अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती है, वह यहाँ दे रहा हूँ।
कहा जाता है कि वीरबल आगरा में किले के बाहर पान की दुकान करते थे। उस समय उनका नाम महेश था। एक बार बादशाह अकबर का एक नौकर उनके पास आया और बोला- ‘लाला, आपके पास एक पाव चूना होगा?’ यह सुनकर वीरबल चौंक गये और पूछा- ‘क्या करोगे एक पाव चूने का? इतने चूने की जरूरत कैसे पड़ गयी तुम्हें?’


वह बोला- ‘मुझे तो कोई जरूरत नहीं है, पर बादशाह ने मँगवाया है।’
वीरबल ने पूछा- ‘बादशाह ने मँगवाया है? जरा तफसील से बताओ कि क्यों मँगवाया है?’
वह बोला- ‘यह तो पता नहीं कि क्यों मँगवाया है। पर आज मैं रोज की तरह बादशाह के लिए पान लगाकर ले गया था। उसको मुँह में रखने के बाद उन्होंने पूछा कि तुम्हारे पास एक पाव चूना होगा? मैंने कहा कि है तो नहीं, लेकिन मिल जाएगा। तो बादशाह ने हुक्म दिया कि जाकर ले आओ। बस इतनी सी बात हुई है।’
‘तो मियाँ अपने साथ अपना कफन भी लेते जाना।’
यह सुनते ही वह नौकर घबड़ा गया- ‘क्.. क्.. क्या कह रहे हो, लाला? कफन क्यों?’
‘यह चूना तुम्हें खाने का हुक्म दिया जाएगा।’
‘क्यों? मैंने क्या किया है?’
‘पान में चूना ज्यादा लग गया है। इसलिए उसकी तुर्शी से तुम्हें वाकिफ कराने की जरूरत महसूस हुई है।’
‘लेकिन इतना चूना खाने से तो मैं मर जाऊँगा।’
‘हाँ, तभी तो कह रहा हूँ कि कफन साथ लेते जाना।’
अब तो वह नौकर थर-थर काँपने लगा। रुआँसा होकर बोला- ‘लाला,जब आप इतनी बात समझ गये हो, तो बचने की कोई तरकीब भी बता दो।’
वीरबल ने कहा- ‘एक तरकीब है। बादशाह के पास जाने से पहले तुम गाय का एक सेर खालिश घी पी जाना। जब चूना खाने का हुक्म मिले, तो चुपचाप खा जाना और घर जाकर सो जाना। तुम्हें कुछ दस्त-वस्त लगेंगे, लेकिन जान बच जायेगी।’

वह शुक्रिया करके चला गया।
घी पीकर और चूना लेकर वह बादशाह के पास पहुँचा- ‘हुजूर, चूना हाजिर है।’
अकबर ने कहा- ‘ले आये चूना? इसे यहीं खा जाओ।’
‘जो हुक्म हुजूर’ कहकर वह चूना खा गया। अकबर ने हुक्म दिया- ‘अब जाओ।’ कोर्निश करके वह चला गया।
अगले दिन वह फिर पान लेकर हाजिर हुआ। उसे देखकर अकबर को आश्चर्य हुआ- ‘क्या तुम मरे नहीं?’
‘आपके फजल से जिन्दा हूँ, हुजूर!’
‘तुम बच कैसे गये? मैंने तो तुम्हें एक पाव चूना अपने सामने खिलाया था।’
‘हुजूर, आपके पास आने से पहले मैंने गाय का एक सेर घी पी लिया था।’
‘यह तरकीब तुम्हें किसने बतायी? और तुम्हें कैसे पता था कि मैं चूना खाने का हुक्म दूँगा?’
‘मुझे नहीं पता था, लेकिन पान वाला लाला समझ गया था। उसी ने मुझे यह तरकीब बतायी थी, हुजूर।’
अब तो अकबर चौंका। बोला- ‘पूरी बात बताओ कि तुम दोनों के बीच क्या बात हुई?’
तब उस नौकर ने वह बातचीत कह सुनायी जो उसके और वीरबल के बीच हुई थी। यह सुनकर अकबर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। बोला- ‘यह पानवाला लाला तो बहुत बुद्धिमान मालूम होता है। तुम उसको हमारे पास लेकर आना। हम उसे अपना दोस्त बनायेंगे।’
तब वह नौकर वीरबल को लेकर अकबर के पास गया और इस प्रकार अकबर और वीरबल में मित्रता हुई।

'मौत का त्रिकोण'



संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण पूर्वी अटलांटिक महासागर के अक्षांश 25 डिग्री से 45 डिग्री उत्तर तथा देशांतर 55 से 85 डिग्री के बीच फैले 39,00,000 वर्ग किमी के बीच फैली जगह, जोकि एक काल्पनिक त्रिकोण जैसी दिखती है, बरमूडा त्रिकोण अथवा बरमूडा त्रिभुज के नाम से जानी जाती है।

इस त्रिकोण के तीन कोने बरमूडा, मियामी तथा सेन जआनार, पुतौरिका को स्पर्श करते हैं। वर्ष 1854 से इस क्षेत्र में कुछ ऐसी घटनाऍं/दुर्घटनाऍं घटित होती रही हैं कि इसे 'मौत के त्रिकोण' के नाम से जाना जाता है।

बरमूडा त्रिकोण पहली बार विश्व स्तर पर उस समय चर्चा में आया, जब 1964 में आरगोसी नामक पत्रिका में इस पर लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख को विसेंट एच गोडिस ने लिखा था। इसके बाद से लगातार सम्पूर्ण विश्व में इस पर इतना कुछ लिखा गया कि 1973 में एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में भी इसे जगह मिल गई।

बरमूडा त्रिकोण की सबसे विख्यात दुर्घटना 5 सितम्बर 1945 में हुई, जिसमें पॉंच तारपीडो यान नष्ट हो गये थे। उन उड़ानों का नेतृत्व कर रहे चालक ने दुर्घटना होने के पहले अपना संदेश देते हुए कहा था- हम नहीं जानते कि पश्चिम किस दिशा में है। सब कुछ गलत हो गया है। हमें कोई भी दिशा समझ में नहीं आ रही है। हमें अपने अड्डे से 225 मील उत्तर पूर्व में होना चाहिए, लेकिन ऐसा लगता है कि !


और उसके बाद आवाज आनी बंद हो गई। उन यानों का पता लगाने के लिए तुरंत ही मैरिनर फ्लाइंग बोट भेजी गई थी, जिसमें 13 लाग सवार थे। लेकिन वह बोट भी कहँ गई, इसका भी पता नहीं चला।

इस तरह की तमाम घटनाएँ उस क्षेत्र में होने का दावा समय समय पर किया जाता रहा है। लेकिन यह सब किन कारणों से हो रहा है, यह कोई भी बताने में अस्मर्थ रहा है। इस सम्बंध में चार्ल्स बर्लिट्ज ने 1974 में अपनी एक पुस्तक के द्वारा इस रहस्य की पर्तों को खोजने का दावा किया था। उसने अपनी पुस्तक 'दा बरमूडा ट्राइएंगिल मिस्ट्री साल्व्ड' में लिखा था कि यह घटना जैसी बताई जाती है, वैसी है नही। बॉम्बर जहाजों के पायलट अनुभवी नहीं थे। चार्ल्स के अनुसार वे सभी चालक उस क्षेत्र से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे और सम्भवत: उनके दिशा सूचक यंत्र में खराबी होने के कारण खराब मौसम में एक दूसरे से टकरा कर नष्ट हो गये।


बहरहाल समय-समय पर इस तरह के ताम दावे इस त्रिकोण के रहस्य को सुलझाने के किए जाते रहे हैं। कुछ रसायन शास्त्रियों क मत है कि उस क्षेत्र में 'मीथेन हाइड्रेट' नामक रसायन इन दुर्घटनाओं का कारण है। समुद्र में बनने वाला यह हाइड्राइट जब अचानक ही फटता है, तो अपने आसपास के सभी जहाजों को चपेट में ले सकता है। यदि इसका क्षेत्रफल काफी बड़ा हो, तो यह बड़े से बड़े जहाज को डुबो भी सकता है।

वैज्ञानिकों का मत है कि हाइड्राइट के विस्फोट के कारण डूबा हुआ जहाज जब समुद्र की अतल गहराई में समा जाता है, तो वहाँ पर बनने वाले हाइड्राइट की तलछट के नीचे दबकर गायब हो जाता है। यही कारण है कि इस तरह से गायब हुए जहाजों का बाद में कोई पता-निशां नहीं मिलता। इस क्षेत्र में होने वाले वायुयानों की दुर्घटना के सम्बंध में वैज्ञानिकों का मत है कि इसी प्रकार जब मीथेन बड़ी मात्रा में वायुमण्डल में फैलती है, तो उसके क्षेत्र में आने वाले यान का मीथेन की सांद्रता के कारण इंजन में ऑक्सीजन का अभाव हो जाने से वह बंद हो जाता है। ऐसी दशा में विमान पर चालक का नियंत्रण समाप्त हो जाता है और वह समुद्र के पेट में समा जाता है। अमेरिकी भौगोलिक सवेक्षण के अनुसार बरमूडा की समुद्र तलहटी में मीथेन का अकूत भण्डार भरा हुआ है। यही वजह है कि वहाँ पर जब-तब इस तरह की दुर्घटनाएँ होती रहती हैं।

बहरहाल इस तर्क से भी सभी वैज्ञानिक सहमत नहीं हैं। यही कारण है कि बरमूडा त्रिकोण अभी भी एक अनसुलझा रहस्य ही बना हुआ है। इस रहस्य से कभी पूरी तरह से पर्दा हटेगा, यह कहना मुश्किल है।


बरमूडा त्रिकोण क्षेत्र में जमीन पर हुई घटनाएं:-


1. सन् 1969 में बिमिनी, बाहामास स्थित ग्रेट आइजैक लाइटहाउस पर कार्यरत दो कर्मचारी अचानक लापता हो गये और फिर कभी नहीं मिले।

 बरमूडा त्रिकोण की समुद्री घटनाएं:-
  1. 4 मार्च 1918: पानी में चलनेवाला अमेरिकी जहाज साइक्लॉप्स, 309 लोगों के साथ गायब हो गया।

  2. 1 दिसंबर 1925: चाल्र्सटन, दक्षिण कैरोलीना से हवाना, क्यूबा के लिए चलने के बाद पानी के जहाज सोटोपैक्सी ने रेडियो सिगल पर संदेश जारी किया कि जहाज डूब रहा है। उसके बाद जहाज की कोई खबर नहीं मिली।

  3. 23 नवंबर 1941: अमेरिकी जहाज प्रोटिअस, 58 लोगों के साथ वर्जिन आइलैंड के लिए चला. इस पर बॉक्साइट लदा हुआ था। दो दिनों बाद इसका कोई पता नहीं चला। इसके अगले महीने उसी कंपनी का दूसरा जहाज नेरेअस 61 लोगों के साथ उसी क्षेत्र के आसपास से लापता हो गया।

  4. 2 फरवरी 1963: सल्फर क्वीन नामक जहाज 15 हजार दो सौ 60 टन सल्फर के साथ ब्यूमोंट, टेक्सास के लिए चला। इस पर चालक दल के 39 सदस्यसवार थे। 4 फरवरी को प्राप्त रेडियो सिग्नलों के अनुसार, यह तेज समुद्री आंधी में फंस गया और इसके दो दिन बाद इसकी कोई खोज-खबर नहीं मिली। 
बरमूडा त्रिकोण की वायुयान दुर्घटनाएं:-
  1. 5 दिसंबर 1945: फ्लाइट 19 में सवार 14 वायु सैनिकों का एक दल लापता हुआ, उसी दिन उसकी तलाश में 13 सदस्यों के साथ निकला पीबीएम मरीनर भी लापता हुआ।

  2. 30 जनवरी 1948: स्टार टाइगर नामक हवाई जहाज चालक दल के छह सदस्यों और 25 यात्रियों के साथ लापता हो गया।

  3. 28 दिसंबर 1948: डगलस डीसी-3 हवाई जहाज चालक दल के तीन सदस्यों और 36 यात्रियों के साथ लापता हुआ।

  4. 17 जनवरी 1949: स्टार एरियल वायुयान चालक दल के सात सदस्यों और 13 यात्रियों के साथ लापता हो गया।

Monday 21 October 2013

आर्य..!!



हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे..!!

तीन संत..!!



यह लेव तॉल्स्तॉय की बहुत प्रसिद्द कहानी है. रूस के ऑर्थोडॉक्स चर्च के आर्चबिशप को यह पता चला कि उसके नियमित प्रवचन में भाग लेने वाले बहुत से लोग एक झील के पास जाने लगे हैं. उस झील के बीच में छोटा सा एक टापू था जहाँ एक पेड़ के नीचे तीन बूढ़े रहते थे. गाँव वालों का यह कहना था कि वे तीनों संत हैं. आर्चबिशप को यह बात बहुत नागवार गुज़री क्योंकि ईसाई धर्म में संत केवल उन्हें ही माना जाता है जिन्हें वेटिकन द्वारा विधिवत संत घोषित किया गया हो.

आर्चबिशप क्रोधित हो गया – “वे तीनों संत कैसे हो सकते हैं? मैंने सालों से किसी को भी संतत्व की पदवी के लिए अनुशंसित नहीं किया है! वे कौन हैं और कहाँ से आये हैं?”. लेकिन आम लोग उन तीनों के दर्शनों के लिए जाते रहे और चर्च में आनेवालों की तादाद कम होती गयी.

अंततः आर्चबिशप ने यह तय किया कि वह उन तीनों को देखने के लिए जाएगा. वह नाव में बैठकर टापू की ओर गया. वे तीनों वहां मिल गए. वे बेहद साधारण अनपढ़ और निष्कपट देहातियों जैसे थे. दूसरी ओर, आर्चबिशप बहुत शक्तिशाली व्यक्ति था. रूस के ज़ार के बाद उस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण आदमी था वह. उन तीनों को देखकर वह खीझ उठा – “तुमें संत किसने बनाया?” – उसने पूछा. वे तीनों एक दूसरे का मुंह ताकने लगे. उनमें से एक ने कहा – “किसी ने नहीं. हम लोग खुद को संत नहीं मानते. हम तो केवल साधारण मनुष्य हैं”.

“तो फिर तुम लोगों को देखने के लिए इतने सारे लोग क्यों आ रहे हैं?”

वे बोले – “यह तो आप उन्हीं से पूछिए.”

“क्या तुम लोगों को चर्च की आधिकारिक प्रार्थना आती है?” – आर्चबिशप ने पूछा.

“नहीं. हम तो अनपढ़ हैं और वह प्रार्थना बहुत लंबी है. हम उसे याद नहीं कर सके.”

“तो फिर तुम लोग कौन सी प्रार्थना पढ़ते हो?”

उन तीनों ने एक-दूसरे की ओर देखा. “तुम बता दो” – एक ने कहा.

“तुम ही बता दो ना” – वे आपस में कहते रहे.

आर्चबिशप यह सब देखसुनकर अपना आप खो बैठा. “इन लोगों को प्रार्थना करना भी नहीं आता! कैसे संत हैं ये?” – उसने मन में सोचा. वह बोला – “तुम लोगों में से कोई भी बता सकता है. जल्दी बताओ!”

वे बोले – “दरअसल हम आपके सामने बहुत ही साधारण व्यक्ति हैं. हम लोगों ने खुद ही एक प्रार्थना बनाई है पर हमें यह पता नहीं था कि इस प्रार्थना को चर्च की मंजूरी मिलना ज़रूरी है. हमारी प्रार्थना बहुत साधारण है. हमें माफ़ कर दीजिये कि हम आपकी मंजूरी नहीं ले पाए. हम इतने संकोची हैं कि हम आ ही न सके.”

“हमारी प्रार्थना है – ईश्वर तीन है और हम भी तीन हैं, इसलिए हम प्रार्थना करते हैं – ‘तुम तीन हो और हम तीन हैं, हम पर दया करो’ – यही हमारी प्रार्थना है.”

आर्चबिशप बहुत क्रोधित हो गया – “ये प्रार्थना नहीं है! मैंने ऐसी प्रार्थना कभी नहीं सुनी!” – वह ज़ोरों से हंसने लगा.

वे बोले – “आप हमें सच्ची प्रार्थना करना सिखा दें. हम तो अब तक यही समझते थे कि हमारी प्रार्थना में कोई कमी नहीं है. ‘ईश्वर तीन है, और हम तीन हैं’, और भला क्या चाहिए? बस ईश्वर की कृपा ही तो चाहिए?

उनके अनुरोध पर आर्चबिशप ने उन्हें चर्च की आधिकारिक प्रार्थना बताई और उसे पढ़ने का तरीका भी बताया. प्रार्थना काफी लंबी थी और उसके ख़तम होते-होते उनमें से एक ने कहा – “हम शुरू का भाग भूल गए हैं”. फिर आर्चबिशप ने उन्हें दोबारा बताया. फिर वे आख़िरी का भाग भूल गए…

आर्चबिशप बहुत झुंझला गया और बोला – “तुम लोग किस तरह के आदमी हो!? तुम एक छोटी सी प्रार्थना भी याद नहीं कर सकते?”

वे बोले – “माफ़ करें लेकिन हम लोग अनपढ़ हैं और हमारे लिए इसे याद करना थोडा मुश्किल है, इसमें बहुत बड़े-बड़े शब्द हैं… कृपया थोड़ा धीरज रखें. यदि आप इसे दो-तीन बार सुना देंगे तो शायद हम इसे याद कर लेंगे”. आर्चबिशप ने उन्हें तीन बार प्रार्थना सुना दी. वे बोले – “ठीक है, अबसे हम यही प्रार्थना करेंगे, हांलाकि हो सकता है कि हम इसका कुछ हिस्सा कहना भूल जाएँ पर हम पूरी कोशिश करेंगे”.

आर्चबिशप संतुष्ट था कि अब वह लोगों को जाकर बताएगा कि उसका पाला कैसे बेवकूफों से पड़ा था. उसने मन में सोचा – ‘अब लोगों को जाकर बताऊँगा कि वे जिन्हें संत कहते हैं उन्हें तो धर्म का क-ख-ग भी नहीं पता. और वे ऐसे जाहिलों के दर्शन करने जाते हैं!’. यही सोचते हुए वह नाव में जाकर बैठ गया. नाव चलने लगी और वह अभी झील में आधे रास्ते पर ही था कि उसे पीछे से उन तीनों की पुकार सुनाई दी. उसने मुड़कर देखा, वे तीनों पानी पर भागते हुए नाव की तरफ आ रहे थे! उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वे लोग पानी पर भागते हुए आये और नाव के पास पानी में खड़े हुए बोले – “माफ़ कीजिये, हमने आपको कष्ट दिया, कृपया चर्च की प्रार्थना एक बार और दोहरा दें, हम कुछ भूल गए हैं”.

आर्चबिशप ने कहा – “तुम लोग अपनी प्रार्थना ही पढो. मैंने तुम्हें जो कुछ भी बताया उसपर ध्यान मत दो. मुझे माफ़ कर दो, मैं बहुत दंभी हूँ. मैं तुम्हारी सरलता और पवित्रता को छू भी नहीं सकता. जाओ, लौट जाओ.”

लेकिन वे अड़े रहे – “नहीं, ऐसा मत कहिये, आप इतनी दूर से हमारे लिए आये… बस एक बार और दोहरा दें, हम लोग भूलने लगे हैं पर इस बार कोशिश करेंगे कि इसे अच्छे से याद कर लें.”

लेकिन आर्चबिशप ने कहा – “नहीं भाइयों, मैं खुद सारी ज़िंदगी अपनी प्रार्थना को पढ़ता रहा पर ईश्वर ने उसे कभी नहीं सुना. हम तो बाइबिल में ही यह पढ़ते थे कि ईसा मसीह पानी पर चल सकते थे पर हम भी उसपर शंका करते रहे. आज तुम्हें पानी पर चलते देखकर मुझे अब ईसा मसीह पर विश्वास हो चला है. तुम लोग लौट जाओ. तुम्हारी प्रार्थना संपूर्ण है. तुम्हें कुछ भी सीखने की ज़रुरत नहीं है”..!!

Sunday 6 October 2013

Muhajir Nama Collection 5



Muhajir hain magar ham ek duniya chor aaye hain,
tmhare paas jitna ha ham utna chor aye hain..!!

Sada-e-reahal ne roka magar ruk hi nai paye
yahan aane ki jaldi me sipara chor aaye hain..!!

farishte do muqarrar the aamaal likhne ko
hame lagta h jaise ek farishta chor aaye hain..!!

milawat k zamane me zyada yaad aata h
ki apni bhains apna dhoodh wala chor aaye hain..!!

hawas hi hamko layi h hawas k sath rehna h
virasat me mila wo faqr-o-faqa chor aaye hain..!!

wo hijrat thi ki mayyat thi tamasha ban gye the ham
ghadi rukhsat ki aayi sab ko gunga chor aaye hain..!!

galay fehmi me uljha reh gya wo phool sa chehra,
ham uski jheel si aankhon ko thehra chor aaye hain..!!

nai duniya ki khatir apni duniya chor di hamne,
sahare ki tanman'na me sahara chor aaye hain..!!

Muhajir hain magar ham ek duniya chor aaye hain,
tmhare paas jitna ha ham utna chor aye hain..!!

Wednesday 25 September 2013

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार..!!



तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।

समर्पण..!!



सुबह के साढ़े आठ बजे थे. अस्पताल में बहुत से मरीज़ थे. ऐसे में एक बुजुर्गवार अपने अंगूठे में लगे घाव के टाँके कटवाने के लिए बड़ी उतावली में थे. उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें ठीक नौ बजे एक बहुत ज़रूरी काम है.

मैंने उनकी जांच करके उन्हें बैठने के लिए कहा. मुझे पता था कि उनके टांकों को काटनेवाले व्यक्ति को उन्हें देखने में लगभग एक घंटा लग जाएगा. वे बेचैनी से अपनी घड़ी बार-बार देख रहे थे. मैंने सोचा कि अभी मेरे पास कोई मरीज़ नहीं है इसलिए मैं ही इनके टांकों को देख लेता हूँ.

घाव भर चुका था. मैंने एक दूसरे डॉक्टर से बात की और टांकों को काटने एवं ड्रेसिंग करने का सामान जुटा लिया.

अपना काम करने के दौरान मैंने उनसे पूछा – “आप बहुत जल्दी में लगते हैं? क्या आपको किसी और डॉक्टर को भी दिखाना है?”

बुजुर्गवार ने मुझे बताया कि उन्हें पास ही एक नर्सिंग होम में भर्ती उनकी पत्नी के पास नाश्ता करने जाना है. मैंने उनसे उनकी पत्नी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी ऐल्जीमर की मरीज है और लम्बे समय से नर्सिंग होम में ही रह रही है.

बातों के दौरान मैंने उनसे पूछा कि उन्हें वहां पहुँचने में देर हो जाने पर वह ज्यादा नाराज़ तो नहीं हो जायेगी.

उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी उन्हें पूरी तरह से भूल चुकी है और पिछले पांच सालों से उन्हें पहचान भी नहीं पा रही है.

मुझे बड़ा अचरज हुआ. मैंने उनसे पूछा – “फिर भी आप रोज़ वहां उसके साथ नाश्ता करने जाते हैं जबकि उसे आपके होने का कोई अहसास ही नहीं है!?”

वह मुस्कुराए और मेरे हाथ को थामकर मुझसे बोले:

“वह मुझे नहीं पहचानती पर मैं तो यह जानता हूँ न कि वह कौन है!”

लेखक – अज्ञात

Tuesday 20 August 2013

क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो..!!



बहुत हुआ अपना अपना घर बार, माँ का प्यार दुलार
क्या हो गया ज़रा देश का हाल  तो देखो
क्या कर लेगा अकेला अन्ना, कहते थे सियासी गलियारे
एक बुड़े ने बदल दी युवाओं  की चाल तो देखो

होसलों के खजानों को खंगाल कर तो देखो
अपनी रगों के लहू को उबाल कर तो देखो
झुक जाएगा आसमाँ, कदम चूमेगी मंजिले
अपनी आँखों मे सपनो को पाल कर तो देखो

सत्ता के नशे मे चूर कितना इन्सान तो देखो
भ्रस्टाचार की अग्नि मे जल रहा अरमान तो देखो
इरादों  मे  होती है  जीत, ताकतों मे नहीं
बुंद बुंद बढता, होसलों  का तूफान तो देखो

सत्तायें पलट सकती है, तस्वीरें बदल सकती है
भटके हैं रास्ते मगर, मंजिले फिर भी मिल सकती है
ज़रा बदल कर अपनी चाल तो देखो
क्या हो गया ज़रा देश  का हाल  तो देखो..!!

आस्था और विश्वास..!!



पर्वतारोहियों का एक दल एक अजेय पर्वत पर विजय पाने के लिए निकला. उनमें एक अतिउत्साही पर्वतारोही भी था जो यह चाहता था कि पर्वत के शिखर पर विजय पताका फहराने का श्रेय उसे ही मिले. रात्रि के घने अन्धकार में वह अपने तम्बू से चुपके से निकल पड़ा और अकेले ही उसने पर्वत पर चढ़ना आरंभ किया. गहरी काली रात में, जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, वह शिखर की ओर बढ़ता रहा. बहुत प्रयास करने के बाद शिखर जब कुछ ही दूर प्रतीत हो रहा था तभी अचानक उसका पैर फिसला और वह तेजी से नीचे की तरफ गिरने लगा. उसे अपनी मृत्यु सामने ही दिख रही थी लेकिन उसकी कमर से बंधी रस्सी ने झटके से उसे रोक दिया. घने अन्धकार में उसे नीचे कुछ नहीं दिख रहा था. रस्सी को जकड़कर ऊपर पहुँच पाना संभव नहीं था. बचने की कोई सूरत न पाकर वह चिल्लाया: – ‘हे ईश्वर… मेरी मदद करो!’

तभी अचानक एक गंभीर स्वर कहीं गूँज उठा – “तुम मुझ से क्या चाहते हो?”

पर्वतारोही बोला – “हे ईश्वर! मेरी रक्षा करो!”

“क्या तुम्हें सच में विश्वास है कि मैं तुम्हारी रक्षा कर सकता हूँ ?

“हाँ ईश्वर! मुझे तुम पर पूरा विश्वास है” – पर्वतारोही बोला.

“ठीक है, अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास है तो अपनी कमर से बंधी रस्सी काट दो…..”

यह सुनकर पर्वतारोही का दिल डूबने लगा. कुछ क्षण के लिए वहाँ एक चुप्पी सी छा गई और उस पर्वतारोही ने अपनी पूरी शक्ति से रस्सी को पकड़े रहने का निश्चय कर लिया.

अगले दिन बचाव दल को एक रस्सी के सहारे लटका हुआ पर्वतारोही का ठंड से जमा हुआ शव मिला. उसके हाथ रस्सी को मजबूती से थामे थे और वह धरती से केवल दस फुट की ऊँचाई पर था. यदि उसने रस्सी को छोड़ दिया होता तो वह पर्वतीय ढलान से लुढ़कता हुआ मामूली नुकसान के साथ जीवित बच गया होता.

ईश्वर में सम्पूर्ण आस्था और विश्वास रखना सहज नहीं है. ऐसी दशा में क्या आप अपनी रस्सी छोड़ देते..!!

Friday 9 August 2013

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है..!!



हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल? -
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है..!!

कुरीति..!!



एक व्यक्ति अपने दो पुत्रों को चिड़ियाघर ले गया. टिकट खिड़की पर प्रवेश टिकटों का मूल्य इस प्रकार लिखा था:

- छः वर्ष से छोटे बच्चों को निःशुल्क प्रवेश. छः वर्ष से बारह वर्ष तक के बच्चों के लिए पांच रुपये. अन्य, दस रुपये.

व्यक्ति ने टिकट बेचनेवाले को रुपये देते हुए कहा, “छोटा लड़का सात साल, बड़ा लड़का तेरह साल, और एक टिकट मेरा.”

टिकट बेचनेवाले ने कहा, “आप अजीब आदमी हैं! आप कम से कम दस रुपये बचा सकते थे. छोटे को छः साल का बताते और बड़े को बारह साल का. मुझे एक-एक साल का अंतर थोड़े ही पता चलता!”

“आपको तो पता नहीं चलता लेकिन बच्चों को तो उनकी उम्र पता है… और मैं नहीं चाहता कि वे इस बुरी बात से सीख लें और यह एक कुरीति बन जाए”..!!

Wednesday 7 August 2013

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों..!!


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है..!!

लिप्टन की चाय..!!



अंग्रेजों ने बहुत सारी चीज़ों से भारतीयों का परिचय कराया. चाय भी उनमें से एक है. मेरे दादा बताते थे कि जब शुरुआत में चाय भारत में आई तो उसका बड़ा जोरशोर से प्रचार किया गया लेकिन कोई उसे चखना भी नहीं चाहता था. ठेलों में केतली सजाकर ढोल बजाकर उसका विज्ञापन किया जाता था लेकिन लंबे अरसे तक लोगों ने चाय पीने में रुचि नहीं दिखाई.

एक-न-एक दिन तो मार्केटिंग का असर होना ही था. धीरे-धीरे लोग चाय की चुस्कियों में लज्ज़त पाने लगे. अब तो चाय न पीने वाले को बड़ा निर्दोष और संयमित जीवन जीने वाला मान लिया जाता है, जैसे चाय पीना वाकई कोई ऐब हो.

खैर. इस पोस्ट का मकसद आपको चाय पीने के गुण-दोष बताना नहीं है. चाय का कारोबार करनेवालों में लिप्टन कम्पनी का बड़ा नाम है. इस कंपनी की स्थापना सर थॉमस जोंस्टन लिप्टन ने की थी. वे कोई संपन्न उद्योगपति नहीं थे. उन्हें यकीन था कि लोग चाय पीने में रुचि दिखायेंगे और उन्होंने चाय के धंधे में जोखिम होने पर भी हाथ आजमाने का निश्चय किया.

शुरुआत में लिप्टन को धंधे में हानि उठानी पडी लेकिन वे हताश नहीं हुए. एक बार वे बड़े जहाज में समुद्री यात्रा पर निकले थे. रास्ते में जहाज दुर्घटना का शिकार हो गया. जहाज के कैप्टन ने जहाज का भार कम करने के लिए यात्रियों से कहा कि वे अपना भारी सामान समुद्र में फेंक दें. लिप्टन के पास चाय के बड़े भारी बक्से थे जिन्हें समुद्र में फेंकना जरूरी था. जब दूसरे यात्री अपने सामान को पानी में फेंकने की तैयारी कर रहे थे तब लिप्टन अपनी चाय के बक्सों पर पेंट से लिखने लगे “लिप्टन की चाय पियें”. यह सन्देश लिखे सारे बक्से समुद्र में फेंक दिए गए.

जहाज सकुशल विपदा से निकल गया. लिप्टन को विश्वास था कि उनकी चाय के बक्से दूर देशों के समुद्र तटों पर जा लगेंगे और उनकी चाय का विज्ञापन हो जायेगा.

लंदन पहुँचने पर लिप्टन ने दुर्घटना का सारा आँखों देखा हाल विस्तार से लिखा और उसे समाचार पत्र में छपवा दिया. रिपोर्ट में यात्रियों की व्याकुलता और भय का सजीव चित्रण किया गया था. लाखों लोगों ने उसे पढ़ा. रिपोर्ट के लेखक के नाम की जगह पर लिखा था ‘लिप्टन की चाय’.

अपनी धुन के पक्के लिप्टन ने एक दुर्घटना का लाभ भी किस भली प्रकार से उठा लिया. लिप्टन की चाय दुनिया भर में प्रसिद्द हो गई और लिप्टन का व्यापार चमक उठा..!!

कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ..!!



बहुत दिनों के बाद छिड़ी है वीणा की झंकार अभय
बहुत दिनों के बाद समय ने गाया मेघ मल्हार अभय
बहुत दिनों के बाद किया है शब्दों ने श्रृंगार अभय
बहुत दिनों के बाद लगा है वाणी का दरबार अभय
बहुत दिनों के बाद उठी है प्राणों में हूंकार अभय
बहुत दिनों के बाद मिली है अधरों को ललकार अभय

बहुत दिनों के बाद मौन का पर्वत पिघल रहा है जी
बहुत दिनों के बाद मजीरा करवट बदल रहा है जी
मैं यथार्थ का शिला लेख हूँ भोजपत्र वरदानों का
चिंतन में दर्पण हूँ भारत के घायल अरमानों का

इसी लिए मैं शंखनाद कर अलख जगाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ

अंधकार में समां गये जो तूफानों के बीच जले
मंजिल उनको मिली कभी जो एक कदम भी नहीं चले
क्रांति कथानायक गौण पड़े हैं गुमनामी की बाँहों में
गुंडे तश्कर तने खड़े हैं राजभवन की राहों में
यहाँ शहीदों की पावन गाथाओं को अपमान मिला
डाकू ने खादी पहनी तो संसद में सम्मान मिला

राजनीती में लौह पुरुष जैसा सरदार नहीं मिलता
लाल बहादुर जी जैसा कोई किरदार नहीं मिलता
नानक गाँधी गौतम का अरमान खो गया लगता है
गुलजारी नंदा जैसा ईमान खो गया लगता है
एरे-गैरे नथू-गैरे संतरी बन कर बैठे हैं
जिनको जेलों में होना था मंत्री बन कर बैठे हैं

मैंने देशद्रोहियों का अभिनन्दन होते देखा है
भगत सिंह का रंग बसंती चोला रोते देखा है
लोकतंत्र का मंदिर भी लाचार बना कर डाल दिया
कोई मछली बिकने का बाजार बना कर डाल दिया

अब भारत को संसद भी दुर्पंच दिखाई देती है
नौटंकी करने वालो का मंच दिखाई देती हैं
राज मुखट पहने बैठे है मानवता के अपराधी

मैं सिंहासन की बर्बरता को ठुकराने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ

आजादी के सपनो का ये कैसा देश बना डाला
चाकू चोरी चीरहरण वाला परिवेश बना डाला
हर चौराहे से आती है आवाजें संत्रासों की
पूरा देश नजर आता है मण्डी ताजा लाशों की
हम सिंहासन चला रहे हैं राम राज के नारों से
मदिरा की बदबू आती हैं संसद की दीवारों से

अख़बारों में रोज खबर है चरम पंथ के हमलों की
आँगन की तुलसी दासी है नागफनी के गमलो की
आज देश में अपहरणो की स्वर्णमयी आजादी है
रोज गोडसे की गोली के आगे कोई गाँधी हैं
संसद के सीने पर खूनी दाग दिखाई देता है
पूरा भारत जालिया वाला बाग़ दिखाई देता है

रोज कहर के बादल फटते है टूटी झोपडियों पर
संसद कोई बहस नहीं करती भूखी अंतडियों पर
वे उनके दिल के छालों की पीड़ा और बढ़ातें हैं
जो भूखे पेटों को भाषा का व्याकरण पढातें हैं
लेकिन जिस दिन भूख बगावत करने पर आ जाती है
उस दिन भूखी जनता सिंहासन को भी खा जाती है

जबतक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक सिंहासन को अपराधी बतलाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ

राजनीति चुल्लू भर पानी है जनमत के सागर में
सब गंगा समझे बैठे है अपनी अपनी गागर में
जो मेधावी राजपुरुष हैं उन सबका अभिनन्दन है
उनको सौ सौ बार नमन है, मन प्राणों से वंदन है
जो सच्चे मन से भारत माँ की सेवा कर सकते हैं
उनके कदमो में हम अपने प्राणों को धर सकते हैं

लेकिन जो कुर्सी के भूखे दौलत के दीवाने हैं
सात समुन्दर पार तिजोरी में जिनके तहखाने हैं
जिनकी प्यास महासागर है भूख हिमालय पर्वत है
लालच पूरा नील गगन है दो कोडी की इज्जत है
इनके कारण ही बनते है अपराधी भोले भाले
वीरप्पन पैदा करते हैं नेता और पुलिस वाले

अनुशाशन नाकाम प्रषाशन कायर गली कूचो में
दो सिंहासन लटक रहे हैं वीरप्पन की मूछों में
उनका भी क्या जीना जिनको मर जाने से डर होगा
डाकू से डर जाने वाला राजपुरुष कायर होगा
सौ घंटो के लिए हुकूमत मेरे हाथों में दे दो
वीरप्पन जिन्दा बच जाये तो मुझको फांसी दे दो

कायरता का मणि मुकुट है राजधर्म के मस्तक पर
मैं शाशन को अभय शक्ति का पाठ पढ़ाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ

बुद्धिजीवियों को ये भाषा अखबारी लग सकती है
मेरी शैली काव्य-शिल्प की हत्यारी लग सकती है
लेकिन जब संसद गूंगी शासन बहरा हो जाता है
और कलम की आजादी पर भी पहरा हो जाता है
जब पूरा जन गण मन घिर जाता है घोर निराशा में
कवि को चिल्लाना पडता है अंगारों की भाषा में

जिन्दा लाशें झूठ की जय जय कर नहीं करती
प्यासी आँखे सिंहासन वालो को प्यार नहीं करती
सत्य कलम की शक्तिपीठ है राजधर्म पर बोलेगी
समय तुला भी वर्तमान के अपराधों को तोलेगी
मनुहारों से लहू के दामन साफ़ नहीं होंगे
इतिहासों की तारिखों में कायर माफ़ नहीं होंगे

शासन चाहे तो वीरप्पन कभी नहीं बच सकता है
सत्यमंगलम के जंगल में कोहराम मच सकता है
लेकिन बड़े इशारे पाकर वर्दी सोती रहती है
राजनीती की अपराधों से फिक्सिंग होती रहती हैं
डाकू नेता और पुलिस का गठबंधन हो जाता हैं
नागफनी काँटों का जंगल चन्दन वन हो जाता है

अपराधों को संरक्षण है राजमहल की चौखट से
मैं दरबारों के दामन के दाग दिखाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ

कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ..!!

फादर कोल्बे..!!



संत मैक्सिमिलियन कोल्बे (1894-1941) पोलैंड के फ्रांसिस्कन मत के पादरी थे. नाजी हुकूमत के दौरान उन्हें जर्मनी की खुफिया पुलिस ‘गेस्टापो’ ने बंदी बना लिया. उन्हें पोलैंड के औश्वित्ज़ के यातना शिविर में भेज दिया गया.

एक दिन यातना शिविर में दैनिक हाजिरी के दौरान एक बंदी कम पाया गया. अधिकारियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वह भाग गया लेकिन बाद में उसका शव कैम्प के गुसलखाने में मिला. वह शायद भागने के प्रयास में पानी की टंकी में डूब गया था. अधिकारियों ने यह तय किया कि मृतक बंदी के भागने का प्रयास करने के कारण उसी बैरक के दस बंदियों को मृत्युदंड दे दिया जाए ताकि कोई दूसरा बंदी भागने का प्रयास करने का साहस न करे. जिन दस बंदियों का चयन किया गया उनमें फ्रान्सिजेक गज़ोनिव्ज़ेक भी था. जब उसने अपनी भावी मृत्यु के बारे में सुना तो वह चीत्कार कर उठा – “हाय मेरी बेटियाँ, मेरी बीवी, मेरे बच्चे! अब मैं उन्हें कभी नहीं देख पाऊँगा!” – वहां मौजूद सभी बंदियों की आँखों में यह दृश्य देखकर आंसू आ गए.

उसका दुःख भरा विलाप सुनकर फादर कोल्बे आगे आये और उसे ले जानेवालों से बोले – “मैं एक कैथोलिक पादरी हूँ. मैं उसकी जगह लेने के लिए तैयार हूँ. मैं बूढ़ा हूँ और मेरा कोई परिवार भी नहीं है”.

फ्रान्सिजेक के स्थान पर कोल्बे की मरने की फरियाद स्वीकार कर ली गई. फादर कोल्बे के साथ बाकी नौ बंदियों को एक कालकोठरी में बंद करके भूख और प्यास से मरने के लिए छोड़ दिया गया. फादर कोल्बे ने सभी बंदी साथियों से उस घड़ी में प्रार्थना करने और ईश्वर में अपनी आस्था दृढ़ करने के लिए कहा. वे बंदियों के लिए माला जपते और भजन गाते थे. भूख और प्यास से एक के बाद एक बंदी मरता गया. फादर कोल्बे अंत तक जीवित रहे और सबके लिए प्रार्थना करते रहे.

कुछ दिनों बाद जब कालकोठरी को खोलकर देखा गया तो फादर कोल्बे जीवित मिले. 14 अगस्त, 1941 के दिन उन्हें बाएँ हाथ में कार्बोलिक एसिड का इंजेक्शन देकर मार दिया गया. उन्होंने प्रार्थना करते हुए अपना हाथ इंजेक्शन लेने के लिए बढ़ाया था. जिस कालकोठरी में फादर कोल्बे की मृत्यु हुई अब वह औश्वित्ज़ जानेवाले यात्रियों के लिए किसी पावन तीर्थ की भांति है.

फादर कोल्बे द्वारा जीवनदान दिए जाने के 53 वर्ष बाद फ्रान्सिजेक गज़ोनिव्ज़ेक की मृत्यु 95 वर्ष की उम्र में 1995 में हुई. जब पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 1982 में फादर कोल्बे को संत की उपाधि दी तब वह उस समय वहां अपने परिवार के साथ उपस्थित था..!!

Thursday 1 August 2013

Kahin mille to usay ye kehna..!!



Kahin mille to usay ye kehna !

faseel-e-nafrat gira raha hoon
Ga’ay dinon ko bhula raha hoon
Wo apne waday se phir gaya hai
Mai apne wade nibha raha hun

Kahin mile to usay ye kehna

Na dil mai koi malal rakhe,
Hamesha apna khyal rakhe!
Apne ghum sare mujhko de day,
Aur tamam khushiyan sambhal rakhe!

Kahin mile to usay ye kehna

Mai tanha sawan bita chuka hun,
Mai sare arman jala chuka hun,
Jo shole bharke thay khwahishon k
Wo ansuon se bujha chuka hun..!!

Suno… Mujhe Rona Nahi Aata..!!



Mujhe Rona Nhi Aata.
Mujhe Khona Nhi Aata.
K Tum Bin Jeena Mushkil Hai.
Jo Dard Tum Dena Chahte Ho Mujhe Sehna Nhi Aata.

Tum To Reh Lo Ge Saath Kisi Aur K Mgr.
Main Kya Krun K Mujhe RASTA Badalna B Nhi Aata.

Tum To Waaqif Ho Andaz.E.Guftugu K.
Mujhe To Baat Krne Ka Salika B Nhi Aata.

Tum To Jeet Jate Ho Larr Jhagar Kar B.
Dekho Mujhe To Larna B Nhi Aata.

Tum To Khush Reh Lo Ge Mere Bin.
Dekho Tumhare Bin To Mujhe Jeena B Nhi Aata..!!

Sunday 7 July 2013

कृष्ण की चेतावनी..!!



वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

'दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।'

थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'..!!

सिकंदर को महान क्यों कहते हैं..!!



सिकन्दर यूनानी प्रायद्वीप के छोटे से देश मकदूनिया का राजा था। उसका जन्म 356 ईपू हुआ था। वह प्रसिद्ध विचारक सुकरात का शिष्य था। युरोप से शुरू करके एशिया माइनर, फारस, मिस्र और फिर भारत तक लड़ाइयाँ जीतकर वह एक अर्थ में पहला विश्व विजेता था। वह बेहद महत्वाकांक्षी था और दुनिया के अंत तक पहुँचना चाहता था। उसे महान बनाने वाली दो-तीन बातें हैं। एक, वह अपने सैनिकों के आगे खुद रहकर लड़ाई लड़ता था। दूसरे, जिस राज्य पर विजय पाता था, कोशिश करके उसे ही अपना राज-पाट चलाने देता था, सिर्फ अपनी अधीनता स्वीकार कराता था। उसका युद्ध कौशल आज भी दुनियाभर की सेनाओं के कोर्स में शामिल है। सबसे बड़ी बात यह कि वह 33 साल की उम्र में दुनिया से विदा हो गया। इतनी कम उम्र में इतनी उपलब्धियों के साथ..!!

Monday 24 June 2013

लीक पर वे चलें जिनके..!!



लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं

शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।

लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं..!!

आग की भीख..!!



धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ

आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ..!!

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद..!!



रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे..!!