Monday 24 June 2013

लीक पर वे चलें जिनके..!!



लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं

शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।

लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं..!!

आग की भीख..!!



धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ

आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ..!!

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद..!!



रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे..!!

तेनालीराम की कहानी..!!



एक बार राज दरबार में नीलकेतु नाम का यात्रीराजा कॄष्णदेव राय से मिलने आया। पहरेदारों ने राजा को उसके आने की सूचना दी। राजा ने नीलकेतु को मिलने की अनुमति दे दी।

यात्री एकदम दुबला-पतला था। वह राजा के सामने आया और बोला- महाराज, मैं नीलदेश का नीलकेतु हूं और इस समय मैं विश्व भ्रमण की यात्रा पर निकला हूं। सभी जगहों का भ्रमण करने के पश्चात आपके दरबार में पहुंचा हूं।

राजा ने उसका स्वागत करते हुए उसे शाही अतिथि घोषित किया। राजा से मिले सम्‍मान से खुश होकर वह बोला- महाराज! उस जगह को जानता हूं, जहां पर खूब सुंदर-सुंदर परियां रहती हैं। मैं अपनी जादुई शक्ति से उन्हें यहां बुला सकता हूं। नीलकेतु की बात सुन राजा खुश होकर बोले - इसके लिए मुझे क्‍या करना चाहिए?

उसने राजा कृष्‍णदेव को रा‍त्रि में तालाब के पास आने के लिए कहा और बोला कि उस जगह मैं परियों को नृत्‍य के लिए बुला भी सकता हूं। नीलकेतु की बात मान कर राजा रात्रि में घोड़े पर बैठकर तालाब की ओर निकल गए।

तालाब के किनारे पहुंचने पर पुराने किले के पास नीलकेतु ने राजा कृष्‍णदेव का स्‍वागत किया और बोला- महाराज! मैंने सारी व्‍यवस्‍था कर दी है। वह सब परियां किले के अंदर हैं।

राजा अपने घोड़े से उतर नीलकेतु के साथ अंदर जाने लगे। उसी समय राजा को शोर सुनाई दिया। देखा तो राजा की सेना ने नीलकेतु को पकड़ कर बांध दिया था।

यह सब देख राजा ने पूछा- यह क्‍या हो रहा है?

तभी किले के अंदर से तेनालीराम बाहर निकलते हुए बोले - महाराज! मैं आपको बताता हूं?

तेनालीराम ने राजा को बताया - यह नीलकेतु एक रक्षा मंत्री है और महाराज...., किले के अंदर कुछ भी नहीं है। यह नीलकेतु तो आपको जान से मारने की तैयारी कर रहा है।

राजा ने तेनालीराम को अपनी रक्षा के लिए धन्यवाद दिया और कहा- तेनालीराम यह बताओं, तुम्हें यह सब पता कैसे चला?

तेनालीराम ने राजा को सच्‍चाई बताते हुए कहा - महाराज आपके दरबार में जब नीलकेतु आया था, तभी मैं समझ गया था। फिर मैंने अपने साथियों से इसका पीछा करने को कहा था, जहां पर नीलकेतु आपको मारने की योजना बना रहा था। तेनालीराम की समझदारी पर राजा कृष्‍णदेव ने खुश होकर उन्हें धन्‍यवाद दिया।

Har ek khone har ek pane me teri yaad aati hai..!!



Har ek khone har ek pane me teri yaad aati hai,
Namak aankho me ghul jane me teri yaad aati hai,
Teri amrit bhari lehro ko kya malum ganga maa,
Samundar paar veerane me teri yaad aati hai,

Har ek khali pade aalind teri yaad aati hai,
Subah ke khwab ke manind teri yaad aati hai,
Hello , hey , hii kahta hai nahi aati magar,
Koi kahta hai jab jai hind teri yaad aati hai,

Sujhaye maa jo muhurat teri yaad aati hai,
Hanse gar budhh ki murat to teri yaad aati hai,
Kahi dollar ke piche chup gaye bharat ke noto par,
Dikhe gandhi ki jab surat toh teri yaad aati hai,

Koi dekhe janam-patri toh teri yaad aati hai,
Koi rag rag me savitri toh teri yaad aati hai,
Achanak muskilon me hath jode aankh munde jab,
Koi japta hai gaytri toh teri yaad aati hai,

Agar mausam ho manbhawan toh teri yaad aati hai,
Jhare megho se gar saawan toh teri yaad aati hai,
Kahi rahman ki jai ho sunkar garv ke aansu,
Kare jab paawan toh teri yaad aati hai..!!

दानवीर कर्ण..!!



महाभारत का युद्ध चल रहा था। सूर्यास्त के बाद सभी अपने-अपने शिविरों में थे। उस दिन अर्जुन कर्ण को पराजित कर अहंकार में चूर थे। वह अपनी वीरता की डींगें हाँकते हुए कर्ण का तिरस्कार करने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले-'पार्थ! कर्ण सूर्यपुत्र है। उसके कवच और कुंडल दान में प्राप्त करने के बाद ही तुम विजय पा सके हो अन्यथा उसे पराजित करना किसी के वश में नहीं था। वीर होने के साथ ही वह दानवीर भी हैं। ' कर्ण की दानवीरता की बात सुनकर अर्जुन तर्क देकर उसकी उपेक्षा करने लगा। श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा समझ गए। वे शांत स्वर में बोले-'पार्थ! कर्ण रणक्षेत्र में घायल पड़ा है। तुम चाहो तो उसकी दानवीरता की परीक्षा ले सकते हो।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मान ली। दोनों ब्राह्मण के रूप में उसके पास पहुँचे। घायल होने के बाद भी कर्ण ने ब्राह्मणों को प्रणाम किया और वहाँ आने का उद्देश्य पूछा। श्रीकृष्ण बोले-'राजन! आपकी जय हो। हम यहाँ भिक्षा लेने आए हैं। कृपया हमारी इच्छा पूर्ण करें।' कर्ण थोड़ा लज्जित होकर बोला-'ब्राह्मण देव! मैं रणक्षेत्र में घायल पड़ा हूँ। मेरे सभी सैनिक मारे जा चुके हैं। मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रही है। इस अवस्था में भला मैं आपको क्या दे सकता हूँ?' 'राजन! इसका अर्थ यह हुआ कि हम ख़ाली हाथ ही लौट जाएँ? किंतु इससे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। संसार आपको धर्मविहीन राजा के रूप में याद रखेगा।' यह कहते हुए वे लौटने लगे। तभी कर्ण बोला-'ठहरिए ब्राह्मणदेव! मुझे यश-कीर्ति की इच्छा नहीं है, लेकिन मैं अपने धर्म से विमुख होकर मरना नहीं चाहता। इसलिए मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा।' कर्ण के दो दाँत सोने के थे। उन्होंने निकट पड़े पत्थर से उन्हें तोड़ा और बोले-'ब्राह्मण देव! मैंने सर्वदा स्वर्ण(सोने) का ही दान किया है। इसलिए आप इन स्वर्णयुक्त दाँतों को स्वीकार करें।'

श्रीकृष्ण दान अस्वीकार करते हुए बोले-'राजन! इन दाँतों पर रक्त लगा है और आपने इन्हें मुख से निकाला है। इसलिए यह स्वर्ण जूठा है। हम जूठा स्वर्ण स्वीकार नहीं करेंगे।' तब कर्ण घिसटते हुए अपने धनुष तक गए और उस पर बाण चढ़ाकरगंगा का स्मरण किया। तत्पश्चात बाण भूमि पर मारा। भूमि पर बाण लगते ही वहाँ से गंगा की तेज जल धारा बह निकली। कर्ण ने उसमें दाँतों को धोया और उन्हें देते हुए कहा-'ब्राह्मणों! अब यह स्वर्ण शुद्ध है। कृपया इसे ग्रहण करें।' तभी कर्ण पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। विस्मित कर्ण भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए बोला-'भगवन! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। मेरे सभी पाप नष्ट हो गए प्रभु! आप भक्तों का कल्याण करने वाले हैं। मुझ पर भी कृपा करें।' तब श्रीकृष्ण उसे आशीर्वाद देते हुए बोले-'कर्ण! जब तक यह सूर्य, चन्द्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता का गुणगान तीनों लोकों में किया जाएगा। संसार में तुम्हारे समान महान दानवीर न तो हुआ है और न कभी होगा। तुम्हारी यह बाण गंगा युगों-युगों तक तुम्हारे गुणगान करती रहेगी। अब तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। कर्ण की दानवीरता और धर्मपरायणता देखकर अर्जुन भी उसके समक्ष नतमस्तक हो गया।

महाभारत का युद्ध..!!



महाभारत का युद्ध निश्चिsत हो जाने पर कुन्ती व्याकुल हो उठीं। वह नहीं चाहती थीं कि कर्ण का पाण्डवों के साथ युद्ध हो। वे कर्ण को समझाने के लिए कर्ण के पास गयीं। कुन्ती को देखकर कर्ण उनके सम्मान में उठ खड़े हुये और बोले,'आप पहली बार आई हैं अतः आप इस 'राधेय' का प्रणाम स्वीकार करें।' कर्ण की बातों को सुन कुन्ती का हृदय व्यथित हो गया और उन्होंने कहा,'पुत्र! तुम 'राधेय' नहीं 'कौन्तेय' हो। मैं ही तुम्हारी माँ हूँ किन्तु लोकाचार के भय से मैंने तुम्हें त्याग दिया था। तुम पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता हो। इसलिये इस युद्ध में तुम्हें कौरवों के साथ नहीं वरन अपने भाइयों के साथ रहना चाहिये। मैं नहीं चाहती कि भाइयों में परस्पर युद्ध हो। मैं चाहती हूँ कि तुम पाण्डवों के पक्ष में रहो। ज्येष्ठ भ्राता होने के कारण पाण्डवों के राज्य के तुम अधिकारी हो। मेरी इच्छा है कि युद्ध जीतकर तुम राजा बनो।'
कर्ण ने जबाव दिया,'हे माता! आपने मुझे त्याग था, क्षत्रियों के उत्तम कुल में जन्म लेकर भी मैं सूतपुत्र कहलाता हूँ। क्षत्रिय होकर भी सूतपुत्र कहलाने के कारण द्रोणाचार्य ने मेरा गुरु बनना स्वीकार नहीं किया। युवराज दुर्योधन ही मेरे सच्चे मित्र हैं। मैं उनके उपकार को भूल कर कृतघ्न नहीं बन सकता। किन्तु आपका मेरे पास आना व्यर्थ नहीं जायेगा क्योंकि आज तक कर्ण के पास से ख़ाली हाथ कभी कोई नहीं गया है। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन के सिवाय आपके किसी पुत्र परअस्त्र शस्त्र का प्रयोग नहीं करूँगा। मेरा और अर्जुन का युद्ध अवश्यम्भावी है और उस युद्ध में हम दोनों में से एक की मृत्यु निश्चिपत है। मेरी प्रतिज्ञा है कि आप पाँच पुत्रों की ही माता बनी रहेंगी।'कर्ण की बात सुनकर तथा उन्हें आशीर्वाद देकर कुन्ती व्यथित हृदय लेकर लौट आईं।

ये डीग्री भी लेलो, नौकरी भी लेलो..!!



ये डीग्री भी लेलो, नौकरी भी लेलो
ये डीग्री भी लेलो, नौकरी भी लेलो,
भले छीन लो मुझसे US का विसा
मगर मुझको लौटा दो वो college का कन्टीन,
वो चाय का पानी, वो तीखा समोसा...

कडी धूप मे अपने घर से निकलना,
वो प्रोजेक्ट की खातीर शहर भर भटकना,
वो लेक्चर मे दोस्तों की proxy लगाना,
वो sir को चीढाना ,वो एरोप्लेन उडाना,
वो party की रातों का जागना जगाना,
वो पलकें झुका के, उसका मुस्कराना,
वो orals की कहानी,वो practicals का किस्सा...
वो चाय का पानी, वो तीखा समोसा...

बीमारी के reason से टाईम बढाना,
वो दूसरों के Assignments को अपना बनाना,
वो सेमीनार के दिन पैरो का छटपटाना,
वो WorkShop मे दिन रात पसीना बहाना,
वो Exam के दिन का बेचैन माहौल,
पर वो मा का यकीं- टीचर का भरोसा.....
वो चाय का पानी, वो तीखा समोसा...

वो पेडो के नीचे गप्पे लडाना,
वो Exams के दिन Theater मे जाना,
वो भोले से फ़्रेशर्स को हमेशा सताना,
Without कोई reason,वो bunk पे जाना,
वो टेस्ट के वक्त,किताबों को छुपाना,
वो महीने के last में उधारी में हिस्सा,
वो चाय का पानी, वो तीखा समोसा..!!

Aaj ke Daur mein aye Dost ye manzar kyuun hai..!!



Aaj ke Daur mein aye Dost ye manzar kyuun hai,
Zakhm Har Sar pe har ek Haath mein Patthar kyuun hai!

Jab Haqiiqat hai ke Har Zar're mein tuu Rahataa hai,
Phir zameen par kahin Masjid kahin Mandir kyuun hai!

Apanaa Anjaam to Maaluum hai sab ko phir bhi,
Apani Nazaron mein har Insaan Sikandar kyuun hai!

Zindagii jeene ke Qhaabil hi nahin ab "Devendra",
Warnaa har Aankh mein Ashkon ka samandar kyuun hai!!

मै तुम्हे ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक..!!



मै तुम्हे ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज़ जाता रहा , रोज़ आता रहा
तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा

ज़िन्दगी के सभी रास्ते एक थे
सबकी मंज़िल तुम्हारे चयन तक रही
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं
प्राण के प्रश्न पर प्रीति की अल्पना
तुम मिटाती रहीं मै बनाता रहा
तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा

एक खामोश हलचल बनी ज़िन्दगी
गहरा ठहरा हुआ जल बनी ज़िन्दगी
तुम बिना जैसे महलों मे बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी ज़िन्दगी
दृष्टि आकाश मे आस का एक दिया
तुम बुझाती रही, मै जलाता रहा
तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा

तुम चली तो गई मन अकेला हुआ
सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ
जब भी लौटी नई खुशबूऒं मे सजी
मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ
खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर
रूठती तुम रही मै मनाता रहा
तुम गज़ल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मै तुम्हे गुनगुनाता रहा

मै तुम्हे ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज़ जाता रहा , रोज़ आता रहा

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बादडियो गगरिया भर दे
बादडियो गगरिया भर दे
प्यासे तन-मन-जीवन को
इस बार तू तर कर दे
बादडियो गगरिया भर दे

अंबर से अमृत बरसे
तू बैठ महल मे तरसे
प्यासा ही मर जाएगा
बाहर तो आजा घर से
इस बार समन्दर अपना
बूँदों के हवाले कर दे
बादडियो गगरिया भर दे

सबकी अरदास पता है
रब को सब खास पता है
जो पानी मे घुल जाए
बस उसको प्यास पता है
बूँदों की लडी बिखरा दे
आँगन मे उजाले कर दे..!!

कोई दीवाना कहता है..!!



कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!


समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!


भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा!
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!!
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का!
मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!

बहुत टूटा बहुत बिखरा थपेडे सह नही पाया
हवाऒं के इशारों पर मगर मै बह नही पाया
रहा है अनसुना और अनकहा ही प्यार का किस्सा
कभी तुम सुन नही पायी कभी मै कह नही पाया

बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन
मन हीरा बेमोल बिक गया घिस घिस रीता तन चंदन
इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज़ गज़ब की है
एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन

तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ

पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या
मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश मे है
हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या

समन्दर पीर का अन्दर है लेकिन रो नही सकता
ये आँसू प्यार का मोती है इसको खो नही सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नही पाया वो तेरा हो नही सकता..!!

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Thursday 20 June 2013

इन्साफ़ की डगर पे..!!



इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुँह से कहना
सच्चाइयों के बल पे आगे को बढ़ते रहना
रख दोगे एक दिन तुम संसार को बदल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

अपने हों या पराए सबके लिये हो न्याय
देखो कदम तुम्हारा हरगिज़ न डगमगाए
रस्ते बड़े कठिन हैं चलना सम्भल-सम्भल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

इन्सानियत के सर पर इज़्ज़त का ताज रखना
तन मन भी भेंट देकर भारत की लाज रखना
जीवन नया मिलेगा अंतिम चिता में जल के,
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के..!!

दरबारे वतन में जब इक दिन..!!



दरबारे वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जायेंगे
कुछ अपनी सजा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी जजा ले जायेंगे

ऐ खाकनशीनों उठ बैठो, वो वक़्त करीब आ पहुंचा है
जब तख़्त गिराए जायेंगे, जब ताज उछाले जायेंगे

अब टूट गिरेंगी जंजीरें अब ज़िन्दानों की ख़ैर नहीं
जो दरया झूम के उठे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे

कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो के अब डेरे मंजिल पे ही डाले जायेंगे

ऐ ज़ुल्म के मातों लब खोलो चुप रहने वालों चुप कब तक
कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जायेंगे..!!

मोको कहां ढूढे रे बन्दे..!!



मोको कहां ढूढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में

ना तीर्थ मे ना मूर्त में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में

मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में

ना मैं जप में ना मैं तप में
ना मैं बरत उपास में
ना मैं किर्या कर्म में रहता
नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में
ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसों की स्वांस में

खोजि होए तुरत मिल जाउं
इक पल की तालाश में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मैं तो हूँ विश्वास में..!!

पुष्प की अभिलाषा..!!



चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।

मुल्ला और पड़ोसी..!!



एक पड़ोसी मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर पहुंचा . मुल्ला उससे मिलने बाहर निकले .

“ मुल्ला क्या तुम आज के लिए अपना गधा मुझे दे सकते हो , मुझे कुछ सामान दूसरे शहर पहुंचाना है ? ”

मुल्ला उसे अपना गधा नहीं देना चाहते थे , पर साफ़ -साफ़ मन करने से पड़ोसी को ठेस पहुँचती इसलिए उन्होंने झूठ कह दिया , “ मुझे माफ़ करना मैंने तो आज सुबह ही अपना गधा किसी उर को दे दिया है .”

मुल्ला ने अभी अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि अन्दर से ढेंचू-ढेंचू की आवाज़ आने लगी .

“ लेकिन मुल्ला , गधा तो अन्दर बंधा चिल्ला रहा है .”, पड़ोसी ने चौकते हुए कहा .

“ तुम किस पर यकीन करते हो .”, मुल्ला बिना घबराए बोले , “ गधे पर या अपने मुल्ला पर ?”

पडोसी चुप – चाप वापस चला गया..!!

मुल्ला का प्रवचन..!!



एक बार मुल्ला नसरुदीन को प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया गया . मुल्ला समय से पहुंचे और स्टेज पर चढ़ गए , “ क्या आप जानते हैं मैं क्या बताने वाला हूँ ? मुल्ला ने पूछा .

“नहीं ” बैठे हुए लोगों ने जवाब दिया .

यह सुन मुल्ला नाराज़ हो गए ,” जिन लोगों को ये भी नहीं पता कि मैं क्या बोलने वाला हूँ मेरी उनके सामने बोलने की कोई इच्छा नहीं है . “ और ऐसा कह कर वो चले गए .

उपस्थित लोगों को थोड़ी शर्मिंदगी हुई और उन्होंने अगले दिन फिर से मुल्ला नसरुदीन को बुलावा भेज .

इस बार भी मुल्ला ने वही प्रश्न दोहराया , “ क्या आप जानते हैं मैं क्या बताने वाला हूँ ?”

“हाँ ”, कोरस में उत्तर आया .

“बहुत अच्छे जब आप पहले से ही जानते हैं तो भला दुबारा बता कर मैं आपका समय क्यों बर्वाद करूँ ”, और ऐसा खेते हुए मुल्ला वहां से निकल गए .

अब लोग थोडा क्रोधित हो उठे , और उन्होंने एक बार फिर मुल्ला को आमंत्रित किया .

इस बार भी मुल्ला ने वही प्रश्न किया , “क्या आप जानते हैं मैं क्या बताने वाला हूँ ?”

इस बार सभी ने पहले से योजना बना रखी थी इसलिए आधे लोगों ने “हाँ ” और आधे लोगों ने “ना ” में उत्तर दिया .

“ ठीक है जो आधे लोग जानते हैं कि मैं क्या बताने वाला हूँ वो बाकी के आधे लोगों को बता दें .”

फिर कभी किसी ने मुल्ला को नहीं बुलाया !

Wednesday 19 June 2013

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी..!!



सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार
नकली युद्ध व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़

महाराष्टर कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में
ब्याह हुआ रानी बन आयी लक्ष्मीबाई झांसी में
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छायी झांसी में
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आयी झांसी में

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छायी
किंतु कालगति चुपके चुपके काली घटा घेर लायी
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भायी
रानी विधवा हुई, हाय विधि को भी नहीं दया आयी

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक समानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हर्षाया
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झांसी हुई बिरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट फिरंगी की माया
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों बात
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात
उदैपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी रोयीं रनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार
नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान
बहिन छबीली ने रण चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी
यह स्वतंत्रता की चिन्गारी अंतरतम से आई थी
झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी बढ़ी कालपी आयी, कर सौ मील निरंतर पार
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खायी रानी से हार
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

विजय मिली पर अंग्रेज़ों की, फिर सेना घिर आई थी
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय घिरी अब रानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार
घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीरगति पानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी गयी सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुष नहीं अवतारी थी
हमको जीवित करने आयी, बन स्वतंत्रता नारी थी

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी
यह तेरा बलिदान जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी
होये चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झांसी

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी..!!

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई..!!



दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

फिर नजर में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुघालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई..!!

नर हो न निराश करो मन को..!!



नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को..!!

Tuesday 18 June 2013

Windows 8 Pro Final Activator

Windows 8 Pro Final Activator

Windows 8 Professional Final Activator.

Instraction:
1.Run as administrator
2.Wait for the process and dont do nothing
3.It restarts automatically
Windows is "activated"
4.^ ^ Enjoy. Buddy

For more detail mail me

devendrapratapsinghs@yahoo.in

Have a nice day,
Keep Smiling,
I wish your smile to be on your face a long.

Download Link:-

Mediafire

http://www.mediafire.com/?513868j9q1oiung

Bitload

http://bitload.it/8e9zfz1eetfw/Windows_8_Pro_Final_Activator.rar.html

Monday 10 June 2013

फिर हम क्यों लड़ते रहते हैं..!!



मुझको तुझसे रंज नहीं है,
तुझको मुझसे द्वेष नहीं!
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!

मेरी पीङा – तेरे आँसू,
तेरा सुख – मेरी मुस्कान|
तेरी राहें – मेरी मंजिल,
मेरा दिल – तेरे अरमान|
मेरा घर – तेरा चौबारा,
तेरा कूचा – मेरी शान|
दौनों ही कहते रहते हैं,
मानव – मानव एक समान|

फिर हम कैसे प्रुथक् हुए?
जब मत मैं अन्तर लेश नहीं!
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!

कौन सनातन है? प्यारे -
इस मुद्दे मैं कुछ जान नहीं|
पारस्परिक समन्वय से,
हम दौनों ही अनजान नहीं|
क्या तुझको – क्या मुझको,
वो सब पहली बातें ध्यान नहीं?
दौनों जानें, कुछ इक बातें,
होती कभी समान नहीं|

कया फिजूल बातों से,
तेरे दिल को पहुंचे ठेस नहीं?
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!

आ, पल भर मिल बैठ जरा,
सुन ले मन की बातें मेरी|
खुदगर्जों का बहिष्कार कर,
बात सुनूंगा मैं तेरी|
सुलझा लें गुत्थी,
सदियों से,
अनसुलझी हैं बहुतेरी|
आज नहीं, तो कभी नहीं,
कल फिर हो जायेगी देरी|

क्या तेरे आराध्य देव का,
एक नाम, ‘अखिलेश’ नहीं?
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!

Ajab pagal si larki hai..!!



Ajab pagal si larki hai
Mujhe har khat me likhti hai
Mujhe tum yaad karte ho?
Tumhe me yaad ati hoon?
Meri baaten satati hain?
Meri neenden jagati hain?
Meri aankhen rulati hain?
Falak k sab sitaroon ko meri baaten sunate ho?
Kitabbon se tumhare ishq me koi kami ayi?
Ya meri yaad ki shiddat se ankhon mai nami ayi?

Ajab pagal si larki hai
Mujhe har khat me likhti hai

Jawab youn uss par likhta hoon

Meri masrofiyat dekho
Subha se shaam Office mai chiragh-e-umr jalta hai
Phir uss k baad duniya ki kai majbooriyan paoun me beriyan daal deti hain
Mujhe chahat se bhare sapne nahi dikh'te
Tehalne jaagne ronay ki mohlat hi nahi milti
Sitaroon se mily arsa hua
kitaboon se shagaf mera abhi wesa hi qaaim hai
Farq itna para hai ab unhain arse me parhta hoon
Tumhe kis ne kaha pagli tumhe me yaad karta hoon
K me khud ko bholne ki musal'sal justaju me hoon
Tumhein na yaad aane ki musal'sal justaju me hoon
Magar ye justaju meri bahut nakaam rehti hai
Mere din raat me ab bhi tumhari shaam behti hai
Mere lafzoon ki har maala tumhare naam rehti hai
Tumhe kis ne kaha pagli tumhe me yaad karta hoon
Unhain ham yaad karte hain jinhe ham bhool jate hain

Ajab pagal si larki hai

Tumhein dil se bhulaon to tumhari yaad aye na
Tumhe dil se bhulane ki mujhe fursat nahi milti
Aur iss masroof jevan main tumhare khat ka ek jumla
"Tumhe main yaad aati hoon"?
Meri shiddat main
kami hone nahi deta
So agli baar khat main ye jumla nahi likhna

Ajab pagal si larki hai
Mujhe phir bhi ye likhti hai

Mujhe tum yaad karte ho?
Tumhe me yaad aati hoon....?

See Video:-


पेड़ नहीं छोड़ता..!!



एक बार की बात है . एक व्यक्ति को रोज़-रोज़ जुआ खेलने की बुरी आदत पड़ गयी थी . उसकी इस आदत से सभी बड़े परेशान रहते. लोग उसे समझाने कि भी बहुत कोशिश करते कि वो ये गन्दी आदत छोड़ दे , लेकिन वो हर किसी को एक ही जवाब देता, ” मैंने ये आदत नहीं पकड़ी, इस आदत ने मुझे पकड़ रखा है !!!”

और सचमुच वो इस आदत को छोड़ना चाहता था , पर हज़ार कोशिशों के बावजूद वो ऐसा नहीं कर पा रहा था.

परिवार वालों ने सोचा कि शायद शादी करवा देने से वो ये आदत छोड़ दे , सो उसकी शादी करा दी गयी. पर कुछ दिनों तक सब ठीक चला और फिर से वह जुआ खेलने जाना लगा. उसकी पत्नी भी अब काफी चिंतित रहने लगी , और उसने निश्चय किया कि वह किसी न किसी तरह अपने पति की इस आदत को छुड़वा कर ही दम लेगी.

एक दिन पत्नी को किसी सिद्ध साधु-महात्मा के बारे में पता चला, और वो अपने पति को लेकर उनके आश्रम पहुंची. साधु ने कहा, ” बताओ पुत्री तुम्हारी क्या समस्या है ?”

पत्नी ने दुखपूर्वक सारी बातें साधु-महाराज को बता दी .

साधु-महाराज उनकी बातें सुनकर समस्या कि जड़ समझ चुके थे, और समाधान देने के लिए उन्होंने पति-पत्नी को अगले दिन आने के लिए कहा .

अगले दिन वे आश्रम पहुंचे तो उन्होंने देखा कि साधु-महाराज एक पेड़ को पकड़ के खड़े है .

उन्होंने साधु से पूछा कि आप ये क्या कर रहे हैं ; और पेड़ को इस तरह क्यों पकडे हुए हैं ?

साधु ने कहा , ” आप लोग जाइये और कल आइयेगा .”

फिर तीसरे दिन भी पति-पत्नी पहुंचे तो देखा कि फिर से साधु पेड़ पकड़ के खड़े हैं .

उन्होंने जिज्ञासा वश पूछा , ” महाराज आप ये क्या कर रहे हैं ?”

साधु बोले, ” पेड़ मुझे छोड़ नहीं रहा है .आप लोग कल आना .”

पति-पत्नी को साधु जी का व्यवहार कुछ विचित्र लगा , पर वे बिना कुछ कहे वापस लौट गए.

अगले दिन जब वे फिर आये तो देखा कि साधु महाराज अभी भी उसी पेड़ को पकडे खड़े है.

पति परेशान होते हुए बोला ,” बाबा आप ये क्या कर रहे हैं ?, आप इस पेड़ को छोड़ क्यों नहीं देते?”

साधु बोले ,”मैं क्या करूँ बालक ये पेड़ मुझे छोड़ ही नहीं रहा है ?”

पति हँसते हुए बोला , “महाराज आप पेड़ को पकडे हुए हैं , पेड़ आप को नहीं !….आप जब चाहें उसे छोड़ सकते हैं.”

साधू-महाराज गंभीर होते हुए बोले, ” इतने दिनों से मै तुम्हे क्या समझाने कि कोशिश कर रहा हूँ .यही न कि तुम जुआ खेलने की आदत को पकडे हुए हो ये आदत तुम्हे नहीं पकडे हुए है!”

पति को अपनी गलती का अहसास हो चुका था  , वह समझ गया कि किसी भी आदत के लिए वह खुद जिम्मेदार है ,और वह अपनी इच्छा शक्ति के बल पर जब चाहे उसे छोड़ सकता है..!!

तैमूर लंग की कीमत..!!



तैमूर लंग अपने समय का सबसे क्रूर शासक था। उसने हजारों बस्तियां उजाड़ दीं और खून कि नदियाँ बहाई। सैंकडों लोगों को अपनी आँखों के सामने मरवा देना तो उसके लिए मनोविनोद था. कहते हैं कि एक बार उसने बग़दाद में एक लाख लोगों के सर कटवाकर उनका पहाड़ बनवाया था. वह जिस रास्ते से गुज़रता था वहां के नगर और गाँव कब्रिस्तान बन जाते थे।

एक बार एक नगर में उसके सामने बहुत सारे बंदी पकड़ कर लाये गए। तैमूर लंग को उनके जीवन का फैसला करना था। उन बंदियों में तुर्किस्तान का मशहूर कवि अहमदी भी था।

तैमूर ने दो गुलामों कि ओर इशारा करके अहमदी से पूछा – “मैंने सुना है कि कवि लोग आदमियों के बड़े पारखी होते हैं। क्या तुम मेरे इन दो गुलामों की ठीक-ठीक कीमत बता सकते हो?”

अहमदी बहुत निर्भीक और स्वाभिमानी कवि थे। उन्होंने गुलामों को एक नज़र देखकर निश्छल भाव से कहा – “इनमें से कोई भी गुलाम पांच सौ अशर्फियों से ज्यादा कीमत का नहीं है।”

“बहुत खूब” – तैमूर ने कहा – “और मेरी कीमत क्या होनी चाहिए?”

अहमदी ने फ़ौरन उत्तर दिया -”पच्चीस अशर्फियाँ”।

यह सुनकर तैमूर की आँखों में खून उतर आया। वह तिलमिलाकर बोला – “इन तुच्छ गुलामों की कीमत पांच सौ अशर्फी और मेरी कीमत सिर्फ पच्चीस अशर्फियाँ! इतने की तो मेरी टोपी है!”

अहमदी ने चट से कहा – “बस, वही तो सब कुछ है! इसीलिए मैंने तुम्हारी ठीक कीमत लगाई है”।

तैमूर कवि का मंतव्य समझ गया. अहमदी के अनुसार तैमूर दो कौडी का भी नहीं था. अहमदी को मरवाने की तैमूर में हिम्मत नहीं थी. उसने कवि को पागल करार करके छोड़ दिया..!!

अब न आयेगी बेटियां..!!



बेटियों पे कब तलक बस यूँ ही लिखते जाओगे,
कब हकीकत की जमीं पर आ के उन्हें बचाओगे…

क्यों नहीं उठते हाथ और क्यों न करते सर कलम,
और कितनी दामिनीयों के लिए मोमबतियां जलाओगे…

आज कहते हो की प्यारी होती है सब बेटियां,
खुद मगर कब बेटों की चाह से निजात पाओगे…

जानवर से इंसान बना और फिर भी रहा जानवर,
जिस्म मानव का है पर कब इंसानी रूह लाओगे…

छु रही है आसमां आज की सब लड़कियां,
इस जमीं को कब उसके चलने लायक बनाओगे…

देखो क्या उसूल है मुजरिम की भी होती पैरवी ,
ऐसे माहौल में तो बस मुजरिम बढ़ाते जाओगे…

निकली थी बेख़ौफ़ सी घर से वोह जीने जिंदगी,
लुट गयी अब कैसे उसे जीने की राह दिखाओगे…

अपनी बेटी बेटी है, औरों  की बेटी माल है,
कब तलक ये दोहरा चेहरा अपनों से छुपाओगे…

अब न आयेगी कभी इस जमीं पर बेटियां,
अपनेपन ममता को एक दिन तरस जाओगे..!!

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में..!!



मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग

रोज़ मैं चांद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ

खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में

मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में

मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग

मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ

मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ..!!

अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला..!!



अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला

हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला

उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आँचल में
ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला

इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला..!!

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है..!!



इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है..!!

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए..!!



हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए..!!

बदल बदल के भी दुनिया को हम बदलते क्या..!!


बदल बदल के भी दुनिया को हम बदलते क्या
गढ़े हुये थे जो मुर्दे वो उठ के चलते क्या

डगर दिखाने गये थे नगर जला आये
हवस के शोले दियों की तरह से जलते क्या

तरक़्क़ियों के के तमाशों ने मार डाला हमें
अनाज़ उगता नहीं ख़ाक ही निगलते क्या

हलाल हो के भी हमसे यक़ीन छूटा नहीं
झुलस चुका था जो तन उस से बाल उचलते क्या

हरिक सवाल ज़रूरी हरिक ज़वाब अहम
“हम आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या”..!!

Thursday 6 June 2013



परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बड़े लोगों से मिलने में में हमेशा फासला रखना
जहां दरिया समंदर में मिला, दरिया नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिलकुल नए अंदाज़ वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता

मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता ..!!

क्यों अकड़ते है लोग..!!



न जाने क्यों अकड़ते है लोग
जब मालूम होता है सभी को
जाना है एक दिन इस जहां से
प्यार से जीने में क्या जाता है
अकड़ से क्या मिल जाता है
इतने अनजान भी नहीं लोग
बचपन में ही जान जाते है
प्यार से मिलता है प्यार
अकड़ से मिलती है डांट
तब भी न जाने कहां से
जुबान में आ जाती है खटास
इतिहास की बात करता नहीं
खुद देखा है मैंने
कल तक जिन्हें अकड़ते हुए
रूखसत हो गए जहां से
अब वो रहते प्यार से
करते रहते उन्हें भी याद
जाने वाले तो चले जाते है
रह जाती है उनकी यादें
जो न पल-पल रूलाती है
जो न हंसाती है कभी
ऐसा भी क्या जीना
जाने के बाद कोई
भूल से भी न रखे याद
जब होता हो हर काम प्यार से
तब क्यों रहा जाए अकड़ के
न जाने कब किस पल
चले जाए जहां से
लोग कहते है
तुम जियो हजारों साल
मैं मानता हूं
हम जिए कुछ ही साल पर
याद रखें लोग हजारों साल..!!

Wednesday 5 June 2013

साथी, सब कुछ सहना होगा..!!



मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधों में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है..!!



है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था ,
भावना के हाथ से जिसमें वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम उशा की किरण की लालिमासी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनो हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या घड़ी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बातसे मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता पर समय की मुसकुराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिसमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबरअवनि को मत्तता के गीत गागा,
अन्त उनका हो गया तो मन बहलने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय वे साथी कि चुम्बक लौहसे जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
किन्तु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है..!!