Saturday 25 October 2014

चले हैं आज ज़माने को आज़माये हुए..!!

चले हैं आज ज़माने को आज़माये हुए
ये देखो खून में अपने ही हम नहाये हुए

न जाने मुझको हुआ कौन सा मक़ाम हासिल
लुटा के घर भी चला हूं मै सर उठाये हुए

ना उसकी ख़ता थी न थी ख़ता मेरी
निकल रहे हैं मगर हम नज़र चुराये हुए

लो आज फिर से उसने मेरे दिल को तोड़ा है
उसे भी वक़्त हुआ है मुझे सताये हुए

ये जो है हुस्न का सदक़ा समझ नहीं आया
मेरी पहलू में भी हैं वो नज़र झुकाये हुए

जहां मुहाल था एक पल भी ठहरना यारों
ज़माने बीते वहां हम को युग बिताये हुए

अपनी तबाहियों का ग़िला नहीं है हम को
हम आज भी हैं उसकी अज़्मतें बचाये हुए..!!

महक तेरी साँसों की इन साँसों मैं अब भी है..!!

महक तेरी साँसों की इन साँसों मैं अब भी है
तू ना आई पर तेरा इंतज़ार अब भी है,

जो भी पल साथ गुजारे हम ने
उन पलों की याद इस दिल मैं अब भी हैं,

तूने जिस मोड़ पर साथ छोड़ा मेरा
उस मोड़ पर तेरे क़दमो की आहट अब भी हैं,

तेरे मिलने से पहले रूखी थी ये ज़िंदगी
पर तेरे जाने के बाद तन्हा हम अब भी हैं..!!

वो कह के चले इतनी मुलाक़ात बहुत है..!!

वो कह के चले इतनी मुलाक़ात बहुत है
मैं ने कहा रुक जाओ अभी रात बहुत है,

आँसू मेरे थम जायें तो फिर शौक़ से जाना
ऐसे मैं कहाँ जाओगे बरसात बहुत है,

वो कहने लगी जाना मेरा बहुत ज़रूरी है
नही चाहती दिल तोड़ना तुम्हारा, पर मजबूरी है,

अगर हुई हो कोई खता तो माफ़ केर देना
मैं ने कहा हो ज़ाओ चुप ,इतनी कही बात बहुत है,

समझ गया हूँ सब, और कुछ कहो ज़रूरी नही
बस आज की रात रुक जाओ, जाना इतना भी ज़रूरी नही,

फिर कभी ना आउंगा तुम्हारी ज़िंदगी में लौट के
सारी ज़िंदगी तन्हाई के लिए आज की रात बहुत है,

तुम फिर भी ना रुके, पलट के ना देखा, चल ही दिए
हमारे जीने के लिए तुम्हारी वो यादें बहुत हैं..!!

यूँ तन्हा जीने की मुझे आदत सी हो गयी है..!!

यूँ तन्हा जीने की मुझे आदत सी हो गयी है
अनजान रास्तों पे चलने की आदत सी हो गयी है

वो मेरी मोहब्बत से रहें बे-ख़बर ता उमर
मुझे ये दुआ माँगने की आदत सी हो गयी है

कब तक झूठलाउंगा उन से मोहब्बत अपनी
मेरी आँखों को सच बोलने की आदत सी हो गयी है

ना जाने क्यों शाम ढलते ही ये आँखें भीग जाती हैं
मुझे इस चेहरे को अशक़ो में चुपाने की आदत सी हो गयी है

आसमा में चमकता हर सीतारा ये गवाही देगा
मुझे तुम्हारी यादों में नींदें गवाने की आदत सी हो गयी है

इस दुनिया में शायद मेरी मोहब्बत को कोई ना समझ सके
लोगो को मुझे ना समझपाने ने की आदत सी हो गयी है

महफ़िल में हर शख्स ये गिला करता है
मुझे तन्हाईओं में डूबने की आदत सी हो गयी है..!!

कौन था जो..!!

कौन था जो मुझको पहचान देकर चल दिया
वेरिदा तहरीर को उन्वान देकर चल दिया ॥

भूखे बच्चो को केवल हसरत थी वासर रोटिंया
मैं उन्हें पत्थर का एक भगवन देकर चल दिया ॥

आख़िरी रात के सफर में गैर भी कुछ साथ थे
अपनेपन का मैं उन्हें सम्मान देकर चल दिया ॥

उसने शिरकत की थी अश्को की तिजारत में मगर
तनहा मुझको छोड़कर नुकसान देकर चल दिया ॥

सर्द संनाहे में दिल को आरजू थी गीत की
राज था कौन जो तूफान देकर चल दिया ॥

बीच का रास्ता..!!

"हाय, करूणा, आज कित्ते दिन बाद दिख रही है तू? मुझे लगा या तो नौकरी बदल ली तूने या ट्रेन?"
"कुछ नहीं बदला शुभदा, सब कुछ वही है, बस जरा होम फ्रंट पर जूझ रही थी, इसलिए रोज ही ये ट्रेन मिस हो जाती थी।"
"क्यों क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?"
"वही सास ससुर का पुराना लफड़ा। होम टाउन में अच्छा खासा घर है। पूरी जिंदगी वहीं गुजारने के बाद वहाँ अब मन नहीं लगता सो चले आते हैं यहाँ। हम दोनों की मामूली सी नौकरी, छोटा सा फ्लैट और तीन बच्चे। मैं तो कंटाल जाती हूँ उनके आने से। समझ में नहीं आता क्या करूँ।"

"एक बात बता, तेरे ससुर क्या करते थे रिटायरमेंट से पहले?"
"सरकारी दफ्तर में स्टोरकीपर थे।"
"उनकी सेहत कैसी है?"
"ठीक ही है।"
"उन दोनों में से कोई बिस्तर पर तो नहीं है?"
"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस, बुढ़ापे की परेशानियाँ है, बाकी तो...।"
"और तेरा सरकारी मकान है। तेरे ही नाम है ना...तेरे हस्बैंड की तो प्राइवेट नौकरी है . . . ?"
"हाँ है तो...।"
"और तेरे ससुर की पेंशन तो १५०० से ज्यादा ही होगी?"
"हाँ होगी कोई २३०० के करीब।"
"बिलकुल ठीक। और तू रोज रोज के यहाँ टिकने से बचना चाहती है?"
"चाहती तो हूँ, लेकिन मेरी चलती ही कहाँ है। घर में उनकी तरफदारी करने के लिए बैठा है ना श्रवण कुमार।"

"अब तेरी ही चलेगी। एक काम कर। अपने ऑफिस में एक गुमनाम शिकायत डलवा दे कि तेरे नॉन डिपेंडेंट सास ससुर बिना ऑफिस की परमिशन के तेरे घर में रह रहे हैं। तेरे ऑफिस वाले तुझे एक मेमो इश्यू कर देंगे, बस। सास ससुर के सामने रोने धोने का नाटक कर देना...कि किसी पड़ोसी ने शिकायत कर दी है। मैं क्या करूँ? ऐसी हालत में वे जायेंगे ही।"
"सच, क्या कोई ऐसा रूल है?"
"रूल है भी और नहीं भी। लेकिन इस मेमो से डर तो पैदा किया ही जा सकता है।"
"लेकिन शिकायत डालेगा कौन?"
"अरे, टाइप करके खुद ही डाल दे। कहे तो मैं ही डाल दूँ। मैंने भी अपने सास–ससुर से ऐसे ही छुटकारा पाया है।"

गुरु दक्षिणा..!!

"अरे मास्टरजी... आप? आइए.. आइए.." इतने वर्षों के बाद मास्टरजी को अचानक अपने सामने पा कर मैं चौंक ही गया था। मास्टरजी... कहने को तो गाँव के जरा से मिडिल स्कूल के हेडमास्टर.. मगर मेरे आदर्श शिक्षक, जिनकी सहायता और मार्गदर्शन की बदौलत ही उन्नति की अनगिनत सीढियां चढ़कर मैं इस पद पर पहुँचा था। बीस साल पहले की स्मृतियाँ अचानक लहराने लगी थी आँखों के सामने... तब और अब में जमीन -आसमान का फर्क था... कल का दबंग-कसरती शरीर अब जर्जर - झुर्रीदार हो चला था। आँखों पर मोटे फ्रेम की ऐनक, हाथ में लाठी जो उनके पाँवों के कंपन को रोकने में लगभग असफल थी। मैली सी धोती, उस पर लगे असंख्य पैबंद छुपाने को ओढी गई सस्ती सी शाल... मेरा मन द्रवित हो गया था। भाव अभिभूत होकर मैंने मास्टर जी के पाँव छू लिए। मास्टर जी के साथ आए दोनों व्यक्ति चकित थे.. मुझ जैसे बड़े अधिकारी को मास्टर जी के पाँव छूते देख और साथ ही एक अनोखी चमक आ गई थी उनके मुख पर कि मास्टर जी को साथ लाकर उन्होंने गलती नहीं की है। मास्टर जी के चहरे पर विवशता लहराने लगी थी, जैसे मेरा पाँव छूना उन्हें अपराध बोध से ग्रस्त किए दे रहा हो।

"कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ? " क्या आदेश है मेरे लिए? " अपने चपरासी को चाय- नाश्ते का आर्डर देकर मैं उनसे मुखातिब हुआ।
"जी.., वो कल आपसे बात हुई थी ना..." मास्टर जी के साथ आए व्यक्ति ने मुझे याद दिलाया .." ये रवींद्र है, मास्टर जी का पोता .. इसी की नौकरी के सिलसिले में ...

यह व्यक्ति दो-तीन महीने से मेरे विभाग के चक्कर काट रहा था। वह चाहता था कि कैसे भी करके इसके बेटे को नियुक्ति मिल जाए। मैंने रवींद्र का रिकॉर्ड जाँचा था, अंक काफी कम थे। मैंने उन्हें समझाया थe कि मैं उसूलों का पक्का अधिकारी हूँ, योग्य व्यक्ति को ही नियुक्ति दूँगा। अब उनके साथ मास्टर जी का आना मेरी समझ में आ गया था। हालात आदमी को कितना विवश बना देते है। यही मास्टर जी जो एक ज़माने में उसूलों के पक्के थे। हमेशा कहते थे, "अपने काम को इतनी निपुणता से करो कि सामने वाले को तुम्हें गलत साबित करने का मौका ही न मिल पाए।" उन्हीं के उसूल तो मैंने अपनी जिन्दगी में उतर लिए थे और आज वे ही मास्टर जी मेरे सामने खड़े थे, एक अदनी सी नौकरी के लिए सिफारिश लेकर?

"ठीक है, मैं ध्यान रखूँगा, वैसे भी मास्टर जी साथ आए है, तो और कुछ कहने की जरुरत है ही नहीं।" मेरे शब्दों में न चाहते हुए भी व्यंग्य का पुट उभर आया था जिसे मास्टर जी ने समझ लिया था और उनकी हालत और भी दयनीय हो गए थी, वे विदा होने लगे तो मैंने अपना कार्ड निकाल कर मास्टर जी के हाथ में थमा दिया..." अभी शहर में है, तो घर जरूर आइए मास्टर जी "

मास्टर जी ने काँपते हाथों से कार्ड थाम लिया था। उनके जाने के बाद मैं बड़ा अस्वस्थ महसूस करता रहा। सहज होने की कोशिश में एक पत्रिका उलटने लगा कि दरबान ने आकर बताया, "साहब, कोई आपसे मिलने आये हैं।"
"उन्हें ड्राइंग रूम में बिठाओ, मैं आता हूँ " कहकर मैं हाउस कोट पहनकर बाहर आया .. एक आश्चर्य मिश्रित धचका सा लगा... "अरे मास्टर जी , आप? आइए ना.. "

"नहीं बेटा, ज्यादा वक्त नहीं लूँगा तुम्हारा," मास्टर जी की आवाज में कम्पन मौजूद था। "सुबह उन लोगों के साथ मुझे देखकर तुम्हारे दिल पर क्या गुज़री होगी, मैं समझ सकता हूँ। मेरे ही द्वारा दी गई शिक्षा को मैं ही झुठलाने लगूँ तो यह सचमुच गुनाह है बेटा,, पर क्या करता, मजबूरी बाँध लाई मेरे पैर यहाँ तक रवींद्र का बाप मेरा दूर रिश्ते का भतीजा है। मेरे बच्चों ने आलस - आवारगी में सारे जमीन- जायदाद गँवा दी। मेरे अकेले की पेंशन पर क्या घर चलता ? उस पर पत्नी की बीमारी.. ढेरों रुपये का कर्जदार हो गया मैं ... मकान भी गिरवी पड़ा है। ब्याज देने के तो पैसे नहीं, असल कहाँ से देता ? तभी रवींद्र का बाप बोला कि यदि उसका जरा सा काम कर दूँ तो मेरा मकान छुडा देगा। कम से कम रहने का ठौर हो जायेगा, यही लालच यहाँ खींच लाया बेटा। पर तुम्हें देखकर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। कुछ मसले ऐसे होते हैं जो समझौते के लायक नहीं होते। उनकी गरिमा कायम रहनी ही चाहिए। बेटा, तुम रवींद्र को मेरे कहने से नौकरी मत देना। अगर ठीक समझो, तभी उसे रखना।" कहकर मास्टर जी बाहर को चल पड़े थे.. मैं बुत बना खड़ा रह गया था..!!

बारिश..!!

पाठशाला से बाहर निकलकर सनी ने भयभीत निगाहों से आसमान की तरफ देखा। उसके दिल की धड़कन अचानक बहुत तेज हो गई थी। पूरा का पूरा आसमान काले बादलों से ढँका हुआ था और दूर पूरब की ओर बारिश शुरू हो चुकी थी। उसके पास छतरी नहीं थीं। यद्यपि सबेरे ही उसे लगा था कि वर्षा होने वाली है परंतु माँगने पर पिता ने गुम होने के डर से उसे छतरी नहीं दी थी। अब तो उसे भीगते हुए ही जाना होगा। फिर भी सच में उसे इस बात की चिंता उतनी नहीं थी कि अगर वह पानी में भींग गया तो उसे बुखार चढ़ जायेगा या सर्दी लग जायेगी, बल्कि वह इस बात से अधिक उद्विग्न था कि अगर मेह के कीचड़ में उसका नया जूता खराब हो गया तो पिता उसे बहुत मारेगा।

उसने देखा अब बारिश पूर्व की ओर से चलती हुई उसके बिलकुल करीब तक पहुँच गई थी। वह एकबारगी कुछ भी निर्णय नहीं कर पाया कि उसे मकान में छिप जाना चाहिए और पानी रुकने तक इंतजार करना चाहिए या तेजी से घर की ओर दौड़ पड़ना चाहिए। मगर बादल देखकर उसे लगा कि कल सबेरे से पहले तक झड़ी खत्म होने के कोई आसार नहीं हैं। फिर यह भी पक्का है कि वह कितना भी तेज दौड़े तो आधे घंटे से पहले तो घर नहीं पहुँच सकता है। फिर भी उसने तेजी से दौड़ना शुरू कर दिया। तनिक देर में ही पानी घना हो गया। वर्षा की मोटी–मोटी बूँदें उसके सिर पर ओले की तरह पड़ रही थीं पर उसने महसूस किया कि उसकी पीठ पर बूँदें नहीं पड़ रही क्योंकि पीठ पर किताबों का बस्ता उसकी ढाल बना हुआ था। तब उसे ध्यान आया कि नया जूता तो कीचड़ से भरकर सिर्फ कुछ खराब हो जायेगा लेकिन किताबें तो पूरी गल जायेंगी। उसने सोचा कि आज उसे नया जूता खराब करने और पुरानी किताब गलाने के जुर्म में पिछले सभी दिनों से अधिक पिटाई लगेगी।

वह तेजी से दौड़ता जा रहा था। हवा और पानी भी जैसे एक दूसरे से प्रतिद्वन्द्विता कर रहे थे। उसकी बगल से गाड़ियाँ सर्र–सर्र गुजर रही थीं। मोटर की गुर्र–गों जब उसके नजदीक आती वह आंखें बन्द कर लेता और गाड़ी के तेज पहियों से उड़ा कीचड़ मिला पानी कचाक से उसके कपड़ों को रंग देता।

उसने अब तक सिर्फ जूते और किताबों की चिंता की थी, पर देखा कि कपड़े तो उससे भी पहले खराब हो गये हैं। उसने सोचा अगर उसकी माँ जिन्दा होती तो शायद आज वह पिटने से बच जाता। उसने देख रखा था कि पड़ोस का पिता जब अपने बच्चों को कभी पीटता है तो उनकी माँ दौड़ कर उन्हें बचाने आ जाती है। मगर अब यहाँ तो कोई उपाय नहीं हैं। आज तो उसे तीन–तीन जुर्मों की सजा भुगतनी है।

पक्की सड़क अब समाप्त हो चुकी थी। अब वह कच्ची सड़क पर दौड़ रहा था। अभी दस मिनट से कम का रास्ता नहीं होगा। वह दौड़-दौड़ कर थक भी चुका था पर उसने दौड़ना जारी रखा। कच्ची सड़क का कीचड़ उसके जूतों में घुस गया और जूते के तलवे से भी मिट्टी का लोंदा चिपक गया था, इससे जूता बहुत भारी हो गया था। पर चलने के सिवाय कोई उपाय नहीं था। उसकी रफ्तार अब थोड़ी धीमी हो गई थी। ज्यों ज्यों घर नज़दीक आ रहा था, उसका भय बढ़ता जा रहा था। जब चलते–चलते अंततः घर सामने आ गया तो उसने देखा कि पिता पहले ही दफ्तर से लौट चुका था और बाहर बरामदे में ही खड़ा था। पिता को घर पर मौजूद देख कर उसे दुख भी हुआ कि घर इतनी जल्दी क्यों आ गया। उसने अपने जूते की ओर देखा और तन पर गीले कपड़ों को महसूस करते हुए बस्ते की गीली किताबों के बारे में सोचा।

फिर आतंकित आँखों से पिता को देखते हुए आगे बढ़ा। उसे लगा कि उसके पाँव उठ ही नहीं रहे हैं। जैसे किसी चीज से चिपक गये हों। पिता ने सनी को सजल नेत्रों से देखते हुए सोचा कि इसकी माँ अगर होती तो सुबह उसे जरूर छतरी ले जाने की इज़ाज़त दे दी होती। उसे पश्चाताप होने लगा कि बच्चे को भी अपने जैसा भुलक्कड़ समझकर उसने छतरी नहीं दी और गुम जाने के डर से खुद भी छतरी लेकर नहीं गया। दफ्तर से भींगता हुआ ही आया। यदि बच्चे को उसने छतरी दे दी होती तो निश्चय ही सम्भाल कर रखता।

पिता को अचानक उस पर बहुत स्नेह हो आया। उसने आगे बढ़कर उसे गोद में उठा लिया। सनी को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर जब उसे पूरा यकीन हो गया कि वह पिता की गोद में हैं तो उसे इसका कारण एकदम समझ में नहीं आया।

पिता ने घर के भीतर ले जाकर उसे मेज पर बिठा दिया और उसके जूते के फीते खोलने लगा। सनी की नजर कोने में रखे पिता के जूते पर गई। उन जूतों में उसके जूते से भी अधिक कीचड़ था। खूँटी से टंगे पिता के कपड़े मिट्टी से एकदम सने थे। उसने तभी मेज पर रखी पिता के दफ्तर की फाइल देखी, वह बिल्कुल गल चुकी थी..!!

थैंक्यू..!!

'एक मलाई कोफ्ता, एक कड़ाई पनीर, एक दाल मक्खनी और साथ में नान।'
आर्डर करने के बाद वे बीस मिनट प्रतीक्षा करते रहे। पानी आया, प्लेटें लगी, नेपकिन बिछे, बैरा खाना लाया-सभी व्यस्त हो गए। बीच में एक बार चम्मच बजाना पड़ा। लाल कोट वाला बैरा तेज़ी से आया-
'यस सर'
'एक दाल और तीन नान प्लीज़'
जब तक वह यह सब लाया बाकी की चीज़ें ठंडी हो चुकी थी।
'थैंक्यू' उन्होंने कहा।
यह मालरोडीय सभ्य परिवार जब उठा तो प्लेटों में जूठन का नाम तक नहीं था।
आईसक्रीम पार्लर से आईसक्रीम ली, थैंक्यू बोला और गाड़ी में बैठकर खाने लगे।


विभा ने खाना बनाया, डायनिंग टेबल पर लगाया और पति बच्चों की प्रतीक्षा करने लगी। पालक पनीर, कड़ाई गोभी, दहीं वड़े, गाजर का हलवा, पूड़ियाँ वगैरह। अमित ने ढेर सारी गोभी प्लेट में डाली और आलू जूठन की तरह फेंक दिए। निधि ने दहीं वड़े से नाक सिकोड़ा। कृति ने एक कम फूली पूड़ी को ऐसे पकड़ा, जैसे उसमें दोष बनाने वाले का हो। खाने के बाद सभी गाजर का हलवा ऐसे प्लेटों में डालने लगे जैसे उनको ओवर ईटिंग कराने का षडयंत्र रचा जा रहा हो। विभा पर खाना खाने का अहसान लादते हुए सभी धीरे-धीरे उठ गए। किसी के पास उसके लिए थैंक्यू नहीं था..!!

क्या सोचकर दोस्ती का हाथ आगे बढाते हो..!!

क्या सोचकर दोस्ती का हाथ आगे बढाते हो,
मुझे तो अपना नाम भी, बताना नही आता॥

कोई तो आ जाए जब तुम बात करते हो,
मुझे बात करने का बहाना नही आता॥

तुम शिकवे भी मुहब्बत से कर लेते हो,
मुझे तो प्यार भी जताना नही आता॥

कोना बता दे दिल का जो बदरंग देखते हो,
मुझे बेवजह पानी बहाना नही आता॥

जिस से दिल मिलते नही क्यूँ हाथ मिलाते हो,
मुझे बेवजह दोस्ती निभाना नही आता॥

क्या करू जो आंखों को अश्कवार करते हो,
मुझे दोस्तों पर नश्तर, चलाना नही आता॥

फ़िर क्या सोचकर दोस्ती का हाथ आगे बढाते हो,
मुझे झूठे हसीं ख्वाब दिखाना नही आता॥

रुक गई साँसे निकालने से पहले..!!

रुक गई साँसे निकालने से पहले,
कहा एक बार उससे मिललूं चलने से पहले,

कुछ पल गुजार लूं उसकी बाहों में,
ज़िन्दगी के ढलने से पहले,

बहक जाऊं उसके आगोश में,
किसी और के साथ संभालने से पहले,

पत्थर बना लूं खुद को तो अच्छा है,
एहसास जग न जाए यादों के बहल ने से पहले,

मोहब्बत फिर भी करता तुझसे जो खबर होती,
इतना दर्द मिलेगा इस मोड़ के गुज़रने से पहले,

बस इश्क का खुमार हो मुझमे,
डूब जाऊं इस नशे में इसके उतरने से पहले,

सच होने की शर्त रखी कहाँ थी मैंने,
खवाबों की सीडियां चड़ने से पहले,

क्या पता था डूब कर ही पार लग जाउंगा,
इस इश्क के समुन्दर में गिरने से पहले..!!

जो लोग जन-बुझाकर नादान बन गए..!!

जो लोग जन-बुझाकर नादान बन गए
मेरा ख्याल है की वो इन्सान बन गए ॥


हसंते हैं हमको देख के अखाबे-आगही
हम आपके मिजाज की पहचान बन गए ॥


मंझदार तक पहुंचना तो हिम्मत की बात थी
साहिल के आस पास ही तूफान बन गए ॥


इंसानियत की बात तो इतनी है शेख जी
बद्केश्मतो से आप भी इन्सान बन गए ॥


कांटे बहुत थे दमन-फितरत में ऐ अदम
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गए ॥

Friday 17 October 2014

ज़मीन भी जाती रही और आसमान भी ना रहा..!!

ज़मीन भी जाती रही और आसमान भी ना रहा
पर कटे परिंदे में उड़ने का अरमान भी ना रहा,

पहले तो अपने होने का वहम होता था उसे
अब तो ये सूरत है उसका ये गुमान भी ना रहा,

महलों में रहने की मैने ख्वाहिश क्या करी
हाय! वो पुरखों का कच्चा मकान भी ना रहा,

दैर-ओ-हरम तो कभी वाइज़-ओ-रिंद मिलते रहे
इन सब में ऐसा उलझा अब वो इन्सान भी ना रहा,

पायल क्या ये इल्म नहीं, झंकार की दरकार है
कोई उन्हे समझाये इश्क़ इतना आसान भी ना रहा,

उसको भुलाते भुलाते खुद की पहचान खो गई
तीर छूटा ये कुछ ऐसा के कमान भी ना रहा..!!

बाद मुद्दत उसे देखा लोगो..!!

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो

खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो

उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो

अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो

दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो

रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो..!!

हाल-ऐ-दिल अपना सुना लूँ तो चले जाना..!!

हाल-ऐ-दिल अपना सुना लूँ तो चले जाना
तुमको हमराज़ बना लूँ तो चले जाना,

कब तलक छुपाउंगा अपनी उल्फात तुमसे
इकरार- ऐ-महोब्बत जो कर लूँ तो चले जाना,

शर्म-ओ-हया से रुख पर जैसे बिखरी ज़ुल्फ़े
उनको रुख पर में सजा लूँ तो चले जाना,

तेरे हुस्न पर फ़िदा है यहाँ दीवाने कई
तुम को नज़रो में छुपा लूँ तो चले जाना,

जाम बहोत पीये तेरी कातिल नज़रो से मैने
एक जाम तुजे होठों से पिला लूँ तो चले जाना,

एक मुद्दत से प्यासा हूँ में तेरी चाहत का
तुज को एक बार सीने से लगा लूँ तो चले जाना,

तुम मुझ को ही चाहो और दुनिया भुला दो
जादू ये इश्क का चला लूँ तो चले जाना,

तुम को दिल में बसा कर लिखी है यह “ग़ज़ल”
धीरे से उसको गुन-गुना लूँ तो चले जाना..!!

ज़िन्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहां है..!!

ज़िन्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहां है
नाम लेकर प्यार से मुझ को बुलाया ही कहां है?

टूट कर मेरा बिखरना, दर्द की हद से गुज़रना
दिल के आईने में ये मंज़र दिखाया ही कहां है?

शीशा-ए-दिल तोड़ना है तेरे संगे-आसतां पर
तेरे दामन पे लहू दिल का गिराया ही कहां है?

ख़त लिखे थे ख़ून से जो आंसुओं से मिट गये वो
जो लिखा दिल के सफ़े पर, वो मिटाया ही कहां है?

जो बनाई है तिरे काजल से तस्वीरे-मुहब्बत
पर अभी तो प्यार के रंग से सजाया ही कहां है?

देखता है वो मुझे, पर दुश्मनों की ही नज़र से
दुश्मनी में भी मगर दिल से भुलाया ही कहां है?

ग़ैर की बाहें गले में, उफ़ न थी मेरी ज़ुबां पर
संग दिल तू ने अभी तो आज़माया ही कहां है?

जाम टूटेंगे अभी तो, सर कटेंगे सैंकड़ों ही
उसके चेहरे से अभी पर्दा हटाया ही कहां है?

उन के आने की ख़ुशी में दिल की धड़कन थम ना जाये
रुक ज़रा, उनका अभी पैग़ाम आया ही कहां है..!!

उदार दृष्टि..!!

पुराने जमाने की बात है। ग्रीस देश के स्पार्टा राज्य में पिडार्टस नाम का एक नौजवान रहता था। वह पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान बन गया था।

एक बार उसे पता चला कि राज्य में तीन सौ जगहें खाली हैं। वह नौकरी की तलाश में था ही, इसलिए उसने तुरन्त अर्जी भेज दी।
लेकिन जब नतीजा निकला तो मालूम पड़ा कि पिडार्टस को नौकरी के लिए नहीं चुना गया था।
जब उसके मित्रों को इसका पता लगा तो उन्होंने सोचा कि इससे पिडार्टस बहुत दुखी हो गया होगा, इसलिए वे सब मिलकर उसे आश्वासन देने उसके घर पहुंचे।

पिडार्टस ने मित्रों की बात सुनी और हंसते-हंसते कहने लगा, “मित्रों, इसमें दुखी होने की क्या बात है? मुझे तो यह जानकर आनन्द हुआ है कि अपने राज्य में मुझसे अधिक योग्यता वाले तीन सौ मनुष्य हैं।”

न देने वाला मन..!!

 एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देख कर दूसरों को लगता है कि इसे पहले से किसी ने दे रखा है। पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।

अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारे दरिद्र दूर हो जाएंगे, जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया, उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी की तो मानो सांसें ही रुकने लगीं। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उलटे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुन: याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला, मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे कर उसने दो दाने जौ के निकाले और उन्हें राजा की चादर पर डाल दिया। उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली, मगर वे दो दाने देने का मलाल उसे सारे दिन रहा। शाम को जब उसने झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ वह ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। उसे समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है। वह पछताया कि काश! उस समय राजा को और अधिक जौ दी होती, लेकिन नहीं दे सका, क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी..!!

रास्तों पे सब ही पहचाने से लोग हैं..!!

रास्तों पे सब ही पहचाने से लोग हैं
देखो करीब से तो अंजाने से लोग हैं

दिल में झांकोगे तो बस तन्हाईयां ही हैं
महफ़िल सजी है फिर भी वीराने से लोग हैं

करते हैं इश्क़ जानकर अंजाम इश्क़ का
नासमझ से लोग दीवाने से लोग हैं

जिसका वजूद ही नहीं, है उस से मोहब्बत
शम्मा नहीं है फिर भी परवाने से लोग हैं

हैं अश्क़ आह दर्द ही तन्ख्वाह इश्क़ की
छलके गिरे टूटे से पैमाने से लोग हैं

दिखता हो चाहे जो, है कुछ और मुख़्तसर
अपनी हक़ीक़तों के अफ़साने से लोग हैं

हर एक बिक रहा है ज़रूरत के भाव से
अस्ल में देखो तो चाराने से लोग हैं

टूटे हुए छूटे हुए लम्हों का जोड़ हैं
टुकड़ों में जोड़े बिखरे काशाने से लोग हैं

हर एक शय नशा है हर एक शय जुनूं
ज़िदगी साक़ी है मैख़ाने से लोग हैं

आज भी रोते हैं इक छोटी सी बात पर
बदले से ज़माने में पुराने से लोग हैं

छूते हैं आसमां और मिट्टी में पाँव हैं
महल की दीवारों में तहखाने से लोग हैं

अब आप ही समझाइये ये राज़-ए-ज़िंदगी
बाकी जहां में सब ही बचकाने से लोग हैं..!!

बेवफाई की अब इन्तहा - सी हो गई है..!!

बेवफाई की अब इन्तहा - सी हो गई है ,
तुझसे जुदा होकर जीने की आदत - सी हो गई है।

तुम लौटकर आओगी , हम फिर से मिलेंगे शायद,
रोज़ दिल को बहलाने की आदत - सी हो गई है।

तेरे वादों पर क्या भरोसा करते हम,
अब तो धोखा खाने की आदत-सी हो गई है।

खुशी में भी क्या मुस्कुराते हम
अब तो खुशी में भी रोने की आदत-सी हो गई है।

कहां चली गई तू अकेला मुझे छोड़कर,
अब तो तन्हाइयों में रहने की आदत-सी हो गई है।

हर मोड़ पर मिलती हैं ग़मों की परछाइयां,
अब तो ग़मों से समझौते की आदत-सी हो गई है..!!

क्या-क्या रंग दिखाती है जिन्दगी..!!

क्या-क्या रंग दिखाती है जिन्दगी,
अपने बिछ्डो की याद दिलाती है जिन्दगी!

रो- रो कर भी हँसना सिखाती हैं जिन्दगी,
फूलो में रहकर कांटो पर चलना सिखाती है जिन्दगी!

बेगानों को भी अपना बनाती है जिन्दगी,
दूर रहकर भी पास होने का एहसास कराती है जिन्दगी!

एक पल में हजार रंग दिखाती है जिन्दगी,
कभी पतझड़ कभी गुलशन बन जाती है जिन्दगी!

फूलो की तरह मुरझाती है जिन्दगी,
तितली की तरह उड़ जाती है जिन्दगी!

गिरगिट की तरह रंग बदल जाती है जिन्दगी,
क्यो न इसे जिया जाय,
क्योकि सब कुछ खोकर भी जीना सिखाती है जिन्दगी..!!

उसका चेहरा भी सुनाता हैं कहानी उसकी..!!

उसका चेहरा भी सुनाता हैं कहानी उसकी;
चाहता हूँ कि सुनूं उससे जुबानी उसकी;
वो सितमगर है तो अब उससे शिकायत कैसी;
क्योंकि  सितम करना भी आदत हैं पुरानी उसकी,

वो रूठे इस कदर की मनाया ना गया;
दूर इतने हो गए कि पास बुलाया ना गया;
दिल तो दिल था कोई समंदर का साहिल नहीं;
लिख दिया था जो नाम वो फिर मिटाया ना गया,

चाहत  में जिस की जमाने को भुला रखा है,
ये मालुम नहीं किसे उसने दिल में बसा रखा है,
ये मालुम है की वो आसमाँ है और मै जमीन,
फिर भी आँखों में उसी का सपना सजा रखा है,

गुलसन है अगर सफ़र जिंदगी का, तो इसकी मंजिल समशान क्यों है ?
जब जुदाई है प्यार का मतलब, तो फिर प्यार वाला हैरान क्यों है ?
अगर जीना ही है मरने के लिए, तो जिंदगी ये वरदान क्यों है ?
जो कभी न मिले उससे ही लग जाता है दिल,
आखिर ये दिल इतना नादान क्यों है..!!

अगर वो मांगते हम जान भी दे देते,
मगर उनके इरादे तो कुछ और ही थे,
मांगी तो प्यार की हर निशानी वापिस मांगी,
मगर देते वक़्त तो उनके वादे कुछ और ही थे,

ए खुदा आज ये फ़ैसला कर दे, 
उसे मेरा या मुझे उसका कर दे.
बहुत दुख सहे हे मैने, 
कोई ख़ुसी अब तो मूक़दर कर दे.
बहुत मुश्किल लगता है उससे दूर रहना, 
जुदाई के सफ़र को कम कर दे.
जितना दूर चले गये वो मुझसे, 
उसे उतना करीब कर दे.
नही लिखा अगर नसीब मे उसका नाम, 
तो ख़तम कर ये ज़िंदगी और मुझे फ़ना कर दे..!!

वो समझें या ना समझें मेरे जजबात को..!!

वो समझें या ना समझें मेरे जजबात को,
मुझे तो मानना पड़ेगा उनकी हर बात को,
हम तो चले जायेंगे इस दुनिया से,
मगर आंसू बहायेंगे वो हर रात को,

जो आपने न लिया हो, ऐसा कोई इम्तहान न रहा,
इंसान आखिर मोहब्बत में इंसान न रहा,
है कोई बस्ती, जहां से न उठा हो ज़नाज़ा दीवाने का,
आशिक की कुर्बत से महरूम कोई कब्रिस्तान न रहा,

कोई रिश्ता टूट जाये दुख तो होता है,
अपने हो जायें पराये दुख तो होता है,
माना हम नहीं प्यार के काबिल
मगर इस तरह कोई ठुकराये दुख तो होता है,

बिकता अगर प्‍यार तो कौन नहीं खरीदता
बिकती अगर खुशियां तो कौन उसे बेचता
दर्द अगर बिकता तो हम आपसे खरीद लेते
और आपकी खुशियों के लिए हम खुद को बेच देते..!!

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं..!!

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं 
तो ख़्यालों में बहुत दूर निकल जाते हैं 

गर वफ़ाओं में सदाक़त भी हो और शिद्दत भी 
फिर तो एहसास से पत्थर भी पिघल जाते हैं

उसकी आँखों के नशे में हैं जब से डूबे 
लड़-खड़ाते हैं क़दम और संभल जाते हैं 

बेवफ़ाई का मुझे जब भी ख़याल आता है 
अश्क़ रुख़सार पर आँखों से निकल जाते हैं 

प्यार में एक ही मौसम है बहारों का मौसम 
लोग मौसम की तरह फिर कैसे बदल जाते हैं..!!