Monday 25 June 2012

स्वयं को सीमित न होने दें..!!


हेनरी फोर्ड ने दुनिया को सबसे पहली आम लोगों की कार दी जिसका नाम था मॉडल-टी. ऐसा नहीं है कि उनसे पहले किसी ने भी मोटर गाड़ी नहीं बनाईं थीं. कारें तो पहले भी थीं लेकिन वे राजा-महाराजाओं के लिए ही बनती थीं और वह भी इक्का-दुक्का. मॉडल-टी की सफलता के पीछे थी सोची-समझी असेम्बली प्रणाली और उसका महत्वपूर्ण इंजन वी-8.

फोर्ड कुछ ख़ास शिक्षित नहीं थे. दरअसल, 14 साल की उम्र के बाद वे कभी स्कूल नहीं गए. वे गाड़ियां बनाना चाहते थे. वे अत्यंत बुद्धिमान थे और जैसे इंजन की उन्होंने रूपरेखा बनाई थी उसके विषय में उन्हें दृढ विश्वास था कि वह इंजन बनाया जा सकता है. लेकिन उन्हें यांत्रिकी का कोई तजुर्बा नहीं था और वे यह नहीं जानते थे कि वैसा इंजन कैसे बनेगा.

फोर्ड उस जमाने के सबसे अच्छे इंजीनियरों के पास गए और उन्हें अपने लिए इंजन बनाने को कहा. इंजीनियरों ने फोर्ड को बताया कि वे क्या कर सकते थे और क्या नहीं. उनके अनुसार वी-8 इंजन एक असंभव बात थी. लेकिन फोर्ड ने उनपर वी-8 इंजन बनाने के लिए भरपूर दबाव डाला. कुछ महीनों बाद उन्होंने इंजीनियरों से काम में हो रही प्रगति के बारे में पूछा तो उन्हें वही पुराना जवाब मिला कि ‘वी-8 इंजन बनाना संभव नहीं है’. लेकिन फोर्ड ने उन्हें फिर से काम में भिड जाने को कहा. कुछ महीनों के बाद उनका मनपसंद वी-8 इंजन बनकर तैयार था. यह कैसे हुआ?

फोर्ड ने अपने इंजीनियरों को अकादमिक ज्ञान की सीमाओं के परे सदैव अपने विचार और कल्पनाशक्ति पर अधिक भरोसा करने के लिए प्रेरित किया.

शिक्षा हमें यह सिखाती है कि हम क्या कर सकते हैं लेकिन कभी-कभी वह हममें छद्म सीमाओं के भीतर बाँध देती है. यह हमें सिखाती है कि हम क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते. इसके विपरीत हमारे विचार और कल्पनाशक्ति हमें सीमाओं के परे जाकर कुछ बड़ा कर दिखाने के लिए प्रेरित करते हैं.

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कीट-विज्ञानियों और एयरो-डायनामिक्स के जानकारों के अनुसार भंवरे का शरीर बहुत भारी होता है और उसके पंख बहुत छोटे होते हैं. विज्ञान के नियमों के हिसाब से भंवरा उड़ नहीं सकता, लेकिन भँवरे को इस विज्ञान की जानकारी नहीं है और वह मज़े से उड़ता फिरता है.

जब आपको अपनी सीमाओं का बोध नहीं होता तब आप उनसे बाहर जाकर करिश्मे कर दिखाते हैं. तब आपको पता भी नहीं चलता कि आप बेहद सीमित थे. हमारी सारी सीमायें हम स्वयं ही अपने ऊपर थोप लेते हैं. शिक्षित बनिए लेकिन स्वयं को सीमित न होने दें.

प्रयास करते रहें..!!


पाब्लो पिकासो ने कभी कहा था, “ईश्वर बहुत अजीब कलाकार है. उसने जिराफ बनाया, हाथी भी, और बिल्ली भी. उसकी कोई ख़ास शैली नहीं है. वह हमेशा कुछ अलग करने का प्रयास करता रहता है.”

जब आप अपने सपनों को हकीकत का जामा पहनाने की कोशिश करते हैं तो शुरुआत में आपको कभी डर भी लगता है. आप सोचते हैं कि आपको नियम-कायदे से चलना चाहिए. लेकिन हम सभी जब इतने अलग-अलग तरह से ज़िंदगी बिता रहें हों तो ऐसे में नियम-कायदों की परवाह कौन करे! यदि ईश्वर ने जिराफ, हाथी, और बिल्ली बनाई है तो हम भी उसकी कोशिशों से सीख ले सकते हैं. हम किसी रीति या नियम पर क्यों कर चलें!?

यह तो सच है कि नियमों का पालन करने से हम उन गलतियों को दोहराने से बच जाते हैं जो असंख्य लोग हमसे भी पहले करते आये हैं. लेकिन इन्हीं नियमों के कारण ही हमें उन सारी बातों को भी दोहराना पड़ता है जो लोग पहले ही करके देख चुके हैं.

निश्चिंत रहिये. दुनिया पर यकीन कीजिये और आपको राह में आश्चर्य देखने को मिलेंगे. संत पॉल ने कहा था, “ईश्वर ने जगत के मूर्खों को चुन लिया है, कि ज्ञानियों को लज्जित करे; और ईश्वर ने जगत के निर्बलों को चुन लिया है, कि बलवानों को लज्जित करे”. बुद्दिमान जन जानते हैं कि कुछ बातें अनचाहे ही बारंबार होती रहतीं हैं. वे उन्हीं संकटों और समस्याओं का सामना करते रहते हैं जिनसे वे पहले भी जूझ चुके हैं. यह जानकर वे दुखी भी हो जाते हैं. उन्हें लगने लगता है कि वे आगे नहीं बढ़ पायेंगे क्योंकि उनकी राह में वही दिक्कतें फिर से आकर खडीं हो गयीं.

“मैं इन कठिनाइयों से पहले भी गुज़र चुका हूँ”, वे अपने ह्रदय से यह दुखड़ा रोते हैं.

“सो तो है”, उनका ह्रदय उत्तर देता है, “लेकिन तुमने अभी तक उनपर विजय नहीं पाई है”.

लेकिन बुद्धिमान जन यह भी जानते हैं कि सृष्टि में दोहराव व्यर्थ ही नहीं होता. दोहराव बार-बार यह सबक सिखाने के लिए सामने आता है कि अभी कुछ सीखना बाकी रह गया है. बारंबार सामने आती कठिनाइयाँ हर बार एक नया समाधान चाहतीं हैं. जो व्यक्ति बार-बार असफल हो रहा हो, उसे चाहिए कि वह इसे दोष के रूप में न ले, बल्कि इसे गहन आत्मबोध के राह की सीढ़ी समझे.

थॉमस वाटसन ने कभी इसे इस तरह कहा था, “आप मुझसे सफलता का फॉर्मूला जानना चाहते हैं? यह बहुत ही सरल है. अपनी असफलता की दर दुगनी कर दीजिये”.

दीवार


किसी महिला पत्रकार को यह पता चला कि एक बहुत वृद्ध यहूदी सज्जन लंबे समय से येरुशलम की पश्चिमी दीवार पर रोज़ाना बिलानागा प्रार्थना करते आ रहे हैं तो उसने उनसे मिलने का तय किया.

वह येरुशलम की पश्चिमी प्रार्थना दीवार पर गयी और उसने वृद्ध सज्जन को प्रार्थना करते देखा. लगभग 45 मिनट तक प्रार्थना करने के बाद वे अपनी छड़ी के सहारे धीरे-धीरे चलकर वापस जाने लगे.

महिला पत्रकार उनके पास गयी और अभिवादन करके बोली, “नमस्ते, मैं CNN की पत्रकार रेबेका स्मिथ हूँ. आपका नाम क्या है?”

“मौरिस फ़िशिबिएन”, वृद्ध ने कहा.

“मैंने सुना है कि आप बहुत लंबे समय से यहाँ रोज़ प्रार्थना करते रहे हैं. आप ऐसा कब से कर रहे हैं?”

“लगभग 60 साल से”.

“60 साल! यह तो वाकई बहुत लम्बा अरसा है! तो, आप यहाँ किसलिए प्रार्थना करते हैं?”

“मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि ईसाइयों, यहूदियों, और मुसलमानों के बीच शांति स्थापित हो. मैं युद्ध और नफरत के खात्मे के लिए प्रार्थना करता हूँ. मैं यह भी प्रार्थना करता हूँ कि बच्चे बड़े होकर जिम्मेदार इंसान बनें और सब लोग प्रेम से एकजुट रहें”.

“यह तो बहुत अच्छी बात है… और आपको यह प्रार्थना करने से कैसी अनुभूति होती है?”

“मुझे यह लगता है कि मैं 60 सालों से सिर्फ एक दीवार से ही बातें कर रहा हूँ”

सर्वोच्च सत्य..!!



बहुत पुरानी बात है. जापान में लोग बांस की खपच्चियों और कागज़ से बनी लालटेन इस्तेमाल करते थे जिसके भीतर जलता हुआ दिया रखा जाता था.
एक शाम एक अँधा व्यक्ति अपने एक मित्र से मिलने उसके घर गया. रात को वापस लौटते समय उसके मित्र ने उसे साथ में लालटेन ले जाने के लिए कहा.

“मुझे लालटेन की ज़रुरत नहीं है”, अंधे व्यक्ति ने कहा, “उजाला हो या अँधेरा, दोनों मेरे लिए एक ही हैं”.

“मैं जानता हूँ कि तुम्हें राह जानने के लिए लालटेन की ज़रुरत नहीं है”, उसके मित्र ने कहा, “लेकिन तुम लालटेन साथ लेकर चलोगे तो कोई राह चलता तुमसे नहीं टकराएगा. इसलिए तुम इसे ले जाओ”.

अँधा व्यक्ति लालटेन लेकर निकला और वह अभी बहुत दूर नहीं चला था कि कोई राहगीर उससे टकरा गया.

“देखकर चला करो!”, उसने राहगीर से कहा, “क्या तुम्हें यह लालटेन नहीं दिखती?”

“तुम्हारी लालटेन बुझी हुई है, भाई”, अजनबी ने कहा.

असली सुंदरता


हर सुबह घर से निकलने के पहले सुकरात आईने के सामने खड़े होकर खुद को कुछ देर तक तल्लीनता से निहारते थे.

एक दिन उनके एक शिष्य ने उन्हें ऐसा करते देखा. आईने में खुद की छवि को निहारते सुकरात को देख उसके चेहरे पर बरबस ही मुस्कान तैर गयी.

सुकरात उसकी ओर मुड़े, और बोले, “बेशक, तुम यही सोचकर मुस्कुरा रहे हो न कि यह कुरूप बूढ़ा आईने में खुद को इतनी बारीकी से क्यों देखता है!? और मैं ऐसा हर दिन ही करता हूँ.”

शिष्य यह सुनकर लज्जित हो गया और सर झुकाकर खड़ा रहा. इससे पहले कि वह माफी मांगता, सुकरात ने कहा, “आईने में हर दिन अपनी छवि देखने पर मैं अपनी कुरूपता के प्रति सजग हो जाता हूँ. इससे मुझे ऐसा जीवन जीने के लिए प्रेरणा मिलती है जिसमें मेरे सद्गुण इतने निखरें और दमकें कि उनके आगे मेरे मुखमंडल की कुरूपता फीकी पड़ जाए”.

शिष्य ने कहा, “तो क्या इसका अर्थ यह है कि सुन्दर व्यक्तियों को आईने में अपनी छवि नहीं देखनी चाहिए?”

“ऐसा नहीं है”, सुकरात ने कहा, “जब वे स्वयं को आईने में देखें तो यह अनुभव करें कि उनके विचार, वाणी, और कर्म उतने ही सुन्दर हों जितना उनका शरीर है. वे सचेत रहें कि उनके कर्मों की छाया उनके प्रीतिकर व्यक्तित्व पर नहीं पड़े”.