Sunday 28 September 2014

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू..!!

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
 
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
 
अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’
माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है
 
मुसीबत के दिनों में हमेशा साथ रहती है
पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है
 
जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा
 
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
 
ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया
 
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
 
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
 
हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए
माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे
 
ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे
माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे
 
जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई
देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई
 
यहीं रहूँगा कहीं उम्र भर न जाउँगा
ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा
 
अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
 
कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
 
दिन भर की मशक़्क़त से बदन चूर है लेकिन
माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गई है
 
दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों मील जाती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है
 
दिया है माँ ने मुझे दूध भी वज़ू करके
महाज़े-जंग से मैं लौट कर न जाऊँगा
 
बहन का प्यार माँ की ममता दो चीखती आँखें
यही तोहफ़े थे वो जिनको मैं अक्सर याद करता था

 बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है
 
खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही
 
मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंठों पर लरज़ती है
किसी बच्चे का जब पहला सिपारा ख़त्म होता है
 
मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं
सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़—ए—माँ रहने दिया
 
माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
 
मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है

बुज़ुर्गों का मेरे दिल से अभी तक डर नहीं जाता
कि जब तक जागती रहती है माँ मैं घर नहीं जाता
 
अब भी रौशन हैं तेरी याद से घर के कमरे
रौशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको
 
मेरे चेहरे पे ममता की फ़रावानी चमकती है
मैं बूढ़ा हो रहा हूँ फिर भी पेशानी चमकती है
 
आँखों से माँगने लगे पानी वज़ू का हम 
काग़ज़ पे जब भी देख लिया माँ लिखा हुआ
 
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ सज़दे में रहती है
 
चलती फिरती आँखों से अज़ाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है..!!

वो बात बात पे देता है परिंदों की मिसाल..!!

वो बात बात पे देता है परिंदों की मिसाल
साफ़ साफ़ नहीं कहता मेरा शहर ही छोड़ दो
 
तुम्हारी एक निगाह से कतल होते हैं लोग फ़राज़
एक नज़र हम को भी देख लो के तुम बिन ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
 
अब उसे रोज़ न सोचूँ तो बदन टूटता है फ़राज़
उमर गुजरी है उस की याद का नशा किये हुए
 
एक नफरत ही नहीं दुनिया में दर्द का सबब फ़राज़
मोहब्बत भी सकूँ वालों को बड़ी तकलीफ़ देती है
 
हम अपनी रूह तेरे जिस्म में छोड़ आए फ़राज़
तुझे गले से लगाना तो एक बहाना था
 
माना कि तुम गुफ़्तगू के फन में माहिर हो फ़राज़
वफ़ा के लफ्ज़ पे अटको तो हमें याद कर लेना
 
ज़माने के सवालों को मैं हँस के टाल दूँ फ़राज़
लेकिन नमी आखों की कहती है "मुझे तुम याद आते हो"
 
अपने ही होते हैं जो दिल पे वार करते हैं फ़राज़
वरना गैरों को क्या ख़बर की दिल की जगह कौन सी है
 
तोड़ दिया तस्बी* को इस ख्याल से फ़राज़
क्या गिन गिन के नाम लेना उसका जो बेहिसाब देता है
 
हम से बिछड़ के उस का तकब्बुर* बिखर गया फ़राज़
हर एक से मिल रहा है बड़ी आजज़ी* के साथ..!!

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में..!!

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।

 हर धड़कते पत्थर को, लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है, दिल को दिल बनाने में।

 कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।

 सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा,
इतना मत चाहो उसे वो बे-वफ़ा हो जायेगा।

 हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा।

 तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था,
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला।

 मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता, तो हाथ भी न मिला।

 पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते।

 परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

 उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए..!!

कैसे-कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं..!!

 कैसे-कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं,
अपने-अपने ग़म के फ़साने हमें सुनाने आ जाते हैं।

मेरे लिए ये ग़ैर हैं और मैं इनके लिए बेगाना हूँ
फिर एक रस्म-ए-जहाँ है जिसे निभाने आ जाते हैं।

इनसे अलग मैं रह नहीं सकता इस बेदर्द ज़माने में
मेरी ये मजबूरी मुझको याद दिलाने आ जाते हैं।

सबकी सुनकर चुप रहते हैं, दिल की बात नहीं कहते
आते-आते जीने के भी लाख बहाने आ जाते हैं..!!

रजाई..!!

बेटा मैं तुझे कितनी बार कह चुकी हूँ कि छत पर जो चारपाई पड़ी है उस पर यह रजाई सूखने के लिये डाल आ, पर तू तो एक कान से सुनता है दूसरे से निकाल देता है।

माँ इस रजाई को ऊपर डालने की बात तो दूर मैं इसे छुऊँगा भी नहीं। माँ इसे तू बाहर क्यों नहीं फेंक देती। बाढ़ के गंदे पानी में भीगी इस सड़ी हुई रजाई को भला कौन ओढ़ेगा? बाढ़ का गंदा पानी पूरा दिन घर में रहा, कितनी बदबू हो गई थी, यहाँ तक कि घर में खड़ा होना भी मुश्किल  हो रहा था।
देख बेटा दू इसे ऊपर धूप मे सूखने डाल आ। एक बर सूख जाएगी तो तो मैं इसका अस्तर उधेड़कर तथा रूई धुनवाकर फिर से भरवा लूँगी।
माँ मैंने कह दिया, मैं इसे नहीं उठाऊँगा, न ही तुम्हें इसे दोबारा भरवाने दूँगी। उसने एक एक शब्द चबा कर अपनी माँ की गोद में डाल दिया।
दूसरे कमरे में बैठे उसके पिता सभी कुछ सुन रहे थे। वह उठकर उसी कमरे में चले आए जहाँ माँ तथा बेटे  वार्तालाप हो रही था। वे भी बेटे आग्र ह पूर्वक बोले, देख बेटा, ठीक है इसे नये सिरे से मत भरने दना। इसे सुखाकर किसी जरूरतमंद को तो दिया जा सकता है। कितने लोग सर्दियों में फुटपाथ पर ठंड से सिकुड़ रहे होते हैं जिसे भी मिलेगी वह दुआएँ तो देगा।
चलो पापा मैं इसे ऊपर सूखने डाल भी आता हूँ, यह सूख भी जाएगी। परन्तु इसे उठाकर फुटपाथ पर सोने वालों को कौन देने जाएगा। क्या यह गंदी रजाई उठाकर आप जाएँगे या मम्मी जाएँगी?
एक अजगर सा प्रश्न बेटे ने अपने माता पिता के सामने डाल दिया था जो काफी देर तक कमरे में मुँह बाए पसरा रहा। और कमरे में नीरवता छाई रही। अंततः उस चुप्पी को पापा ने ही तोड़ा, बेटा, मान लो इसे फुटपाथ पर सोने वालों को भी नही दिया जाता तो इसका निपटान कैसे होगा। इसे घर के बाहर भी तो नहीं फेंका जा सकता। इसका एक और हल हो सकता है कि इसे कल कूड़ेवाले से ही उठवा दिया जाए।
इस पर उनकी पत्नी आक्रोश जताते हुए बोली, वह इस महँगे अस्तर वाली रजाई को ऐसे ही कूड़े में नहीं फेंकना चाहती।
यह सुनते ही बेटा तुनक कर बोला, तो माँ तू ही जाने, मुझे इसे उठाने के लिये न कहना। इतना कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया।
जब की हल निकलता नजर नहीं आया तो वह पत्नी को ओर देखर बोले, देखो मैं तुम्हें ऐसे अस्तर की एक और रजाई बनवा दूँगा। रही इस रजाई की बात, इसे मैं शाम को ढेहा बस्ती के पास जो नाला है उसके किनारे रख आऊँगा। इतना कहकर वे उठे और रजी को लेकर छत पर धूप में जाल आए। शाम को अँधेरा होते ही वह उस रजाई को नाले के पास छोड़ आए।
अभी वे धीमे धीमे कदमों से घर की ओर लौट रहे थे कि उन्होंने उस बुढिया को उसी रजाई को उठाए वहाँ से गुजरते हुए देखा। वह अपने मुँह में कुछ न कुछ बड़बड़ाती जा रही थी। कुछ टूटे फूटे शब्द उनके कान में भी पड़े- पिछला जाड़ा तो बोरी को ओढ़कर ही काटा था, इस बार तो तूने सुन ली और एक अच्छी सजाई भेज दी। सचमुच भगवान तू कितना दयालू है।

याद..!!

रेन में घुसते ही आज नोना को पता नहीं क्या हुआ, तेज तेज रोना शुरू कर दिया !

दो साल की बच्ची को समझाएँ भी तो कैसे ? माँ ने बहुत कोशिश की उसे सुलाने की पर पता नहीं आज क्या बात थी कि वह पिता की गोदी छोड़ने को तैयार नहीं! माँ गोद में लेकर बैठे तो फिर और तेज रोना शुरू! और माँ ट्रेन की गैलरी में टहले वह कुछ सुरक्षित और सुविधाजनक नहीं था।

आखिरकार पिता ने बेटी को कंधे से लगाया और थपकी देते हुए टहलना शुरू किया ! हल्का सा गुनगुनाने लगे ! यात्री मंद मंद मुस्कुरा रहे थे, महिलाएँ कुछ भावुक हो उठीं! नोना थोड़ी देर बाद चुप हो गई, धीरे से पिता के कंधे पर सिर टिका दिया, आँखें रुक रुक कर बंद कीं और थोड़ी ही देर में मीठे सपनो में खो गयी !

आश्वस्त माँ, पिता की गोद से बच्ची को लेने के लिये उठी तो पिता की आँखे भीगी हुई थी !
माँ ने बच्ची को लेकर सीने से सटाया और पति की आँखों में आँखे डालकर शरारत से पूछा !
"बेटी पर इतना प्यार आया कि मोती बरस पड़े?"
"नहीं, बस, आज पता नहीं क्यों बाबूजी याद आ गए।"

मिल मिल के बिछड़ने का मज़ा क्यों नहीं देते..!!

मिल मिल के बिछड़ने का मज़ा क्यों नहीं देते?
हर बार कोई ज़ख़्म नया क्यों नहीं देते?

ये रात, ये तनहाई, ये सुनसान दरीचे
चुपके से मुझे आके सदा क्यों नहीं देते।

है जान से प्यारा मुझे ये दर्द-ए-मोहब्बत
कब मैंने कहा तुमसे दवा क्यों नहीं देते।

गर अपना समझते हो तो फिर दिल में जगह दो
हूँ ग़ैर तो महफ़िल से उठा क्यों नहीं देते..!!

ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे..!!

ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे,
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे।

अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ,
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे।

कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे।

मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं,
अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे।

आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’
चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे..!!

दूरदर्शी..!!

 
एक आदमी सोना तोलने के लिए सुनार के पास तराजू मांगने आया। सुनार ने कहा, ‘‘मियाँ, अपना रास्ता लो। मेरे पास छलनी नहीं है।’’ उसने कहा, ‘‘मजाक न कर, भाई, मुझे तराजू चाहिए।’’

सुनार ने कहा, ‘‘मेरी दुकान में झाडू नहीं हैं।’’ उसने कहा, ‘‘मसखरी को छोड़, मै तराजू मांगने आया हूँ, वह दे दे और बहरा बन कर ऊटपटांग बातें न कर।’’

सुनार ने जवाब दिया, ‘‘हजरत, मैंने तुम्हारी बात सुन ली थी, मैं बहरा नहीं हूँ। तुम यह न समझो कि मैं गोलमाल कर रहा हूँ। तुम बूढ़े आदमी सुखकर काँटा हो रहे हो। सारा शरीर काँपता हैं। तुम्हारा सोना भी कुछ बुरादा है और कुछ चूरा है। इसलिए तौलते समय तुम्हारा हाथ काँपेगा और सोना गिर पड़ेगा तो तुम फिर आओगे कि भाई, जरा झाड़ू तो देना ताकि मैं सोना इकट्ठा कर लूं और जब बुहार कर मिट्टी और सोना इकट्ठा कर लोगे तो फिर कहोगे कि मुझे छलनी चाहिए, ताकि ख़ाक को छानकर सोना अलग कर सको। हमारी दुकान में छलनी कहां? मैंने पहले ही तुम्हारे काम के अन्तिम परिणाम को देखकर दूरदर्शिता से कहा था कि तुम कहीं दूसरी जगह से तराजू मांग लो।’’ 

दुख का कारण..!!

एक व्यापारी को नींद न आने की बीमारी थी। उसका नौकर मालिक की बीमारी से दुखी रहता था। एक दिन व्यापारी अपने नौकर को सारी संपत्ति देकर चल बसा। सम्पत्ति का मालिक बनने के बाद नौकर रात को सोने की कोशिश कर रहा था, किन्तु अब उसे नींद नहीं आ रही थी। 
एक रात जब वह सोने की कोशिश कर रहा था, उसने कुछ आहट सुनी। देखा, एक चोर घर का सारा सामान समेट कर उसे बांधने की कोशिश कर रहा था, परन्तु चादर छोटी होने के कारण गठरी बंध नहीं रही थी। 

नौकर ने अपनी ओढ़ी हुई चादर चोर को दे दी और बोला, इसमें बांध लो। उसे जगा देखकर चोर सामान छोड़कर भागने लगा। किन्तु नौकर ने उसे रोककर हाथ जोड़कर कहा, भागो मत, इस सामान को ले जाओ ताकि मैं चैन से सो सकूँ। इसी ने मेरे मालिक की नींद उड़ा रखी थी और अब मेरी। उसकी बातें सुन चोर की भी आंखें खुल गईं।

Tuesday 23 September 2014

तुझसे मिलने की सज़ा देंगे तेरे शहर के लोग..!!

तुझसे मिलने की सज़ा देंगे तेरे शहर के लोग,
ये वफाओं का सिला देंगे तेरे शहर के लोग,

क्या ख़बर थी तेरे मिलने पे क़यामत होगी,
मुझको दीवाना बना देंगे तेरे शहर के लोग,

तेरी नज़रों से गिराने के लिए जान-ऐ-हया,
मुझको मुजरिम भी बना देंगे तेरे शहर के लोग,

कह के दीवाना मुझे मार रहे हैं पत्थर,
और क्या इसके सिवा देंगे तेरे शहर के लोग..!!

इश्क की दास्तान है प्यारे..!!

इश्क की दास्तान है प्यारे,
अपनी-अपनी, जुबां है प्यारे

हम ज़माने से इंतकाम तो ले
एक हसीं दरमियान है प्यारे

तू नहीं मैं हूँ, मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे

रख कदम फूंक-फूंक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे..!!

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा..!!

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस न हो खिलवत-ऐ-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

तुम सर-ऐ-राह-ऐ-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ऐ-रिफ़ाक़त से उतर जाएगा,

ज़िन्दगी तेरी अता है तो यह जाने वाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा..!!

बदला ना अपने आप को जो थे वही रहे..!!

बदला ना अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

दुनिया ना जीत पाओ तो हारो ना ख़ुद को तुम
थोडी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे

गुजरो जो बाग़ से तो दुआ मांगते रहे
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे..!!

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो..!!

 धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो

पत्थरों में भी ज़ुबां होती है दिल होते हैं
अपने घर के दरोदीवार सजा कर देखो

फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो..!!

कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है..!!

कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है,
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है,

हमसे पूछो इज्ज़तवालों की इज्ज़त का हाल यहाँ,
हमने भी इस शहर में रहकर थोड़ा नाम कमाया है,

उससे बिछड़े बरसों बीते, लेकिन आज ना जाने क्यूँ?
आँगन में हँसते बच्चों को बेकार धमकाया है,

कोई मिला तो हाथ मिलाया, कहीं गए तो बातें की,
घर से बाहर जब भी निकले, दिन भर बोझ उठाया है..!!

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीँ जाता.!!

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीँ जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती है निगाहेँ
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यूँ नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीँ सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते है जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता

वो नाम जो बरसों से ना चेहरा ना बदन है
वो ख्वाब नगर है तो बिखर क्यूँ नहीं जाता

मुझसे बिछड़ के खुश रहते हो..!!

मुझसे बिछड़ के खुश रहते हो,
मेरी तरह तुम भी झूठे हो,

इक टहनी पर चाँद टिका था,
मैं ये समझा तुम बैठे हो,

उजले उजले फूल खिले थे,
बिल्कुल जैसे तुम हँसते हो,

मुझको शाम बता देती है,
तुम कैसे कपड़े पहने हो,

तुम तन्हा दुनिया से लडोगे,
बच्चों सी बातें करते हो,

खुदा हमको ऐसी खुदाई ना दे..!!

खुदा हमको ऐसी खुदाई ना दे
के अपने सिवा कुछ दिखाई ना दे

खतावार समझेगी दुनिया तुझे
के इतनी ज़ियादा सफाई ना दे

हंसो आज इतना के इस शोर में
सदा सिसकियों की सुनाई ना दे

अभी तो बदन में लहू है बहुत
कलम छीन ले रोशनाई ना दे

खुदा ऐसे एहसास का नाम है
रहे सामने और दिखायी ना दे

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा..!!


 सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जायेगा

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा

मैं खुदा का नाम लेके पी रहा हूँ दोस्तों
ज़हर भी इसमे अगर होगा दवा हो जायेगा

रूठ जाना तो मोहब्बत की अलामत है मगर
क्या ख़बर थी मुझसे वो इतना खफा हो जायेगा
 

कौन आया रास्ते आइना खाना हो गए..!!

कौन आया रास्ते आइना खाना हो गए
रात रोशन हो गयी दिन भी सुहाने हो गए

ये भी मुमकिन है कि उसने मुझको पहचाना ना हो
अब उसे देखे हुए कितने जमाने हो गए

जाओ उन कमरों के आईने उठाकर फ़ेंक दो
वे अगर ये कह रहे हों हम पुराने हो गए

मेरी पलकों पर ये आंसू प्यार की तौहीन हैं
उसकी आँखों से गिरे मोती के दाने हो गए..!!

अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ..!!

 अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ

आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ..!!

इच्छा..!!

हूँ...., आज माँ ने फिर से बैंगन की सब्जी बना कर डिब्बे में डाल दी। मुझे माँ पर गुस्सा आ रहा था ।  कितनी बार कहा है कि मुझे ये सब्जी पसंद नहीं, मत बनाया करो।

कालेज की कैंटीन में अपना टिफिन खोलते हुए, मैं यही सोच रहा था कि तभी मेरी नजर सामने सडक़ के पार पड़ी।

एक बूढ़ा व्यक्ति कूड़े के ढेर से कुछ निकाल कर खाता हुआ दिखाई दिया। मेरी नजरें खुद-ब- खुद झुक गई, मुझे अपनी सब्जी अब बिल्कुल भी बुरी नहीं लग रही थी।

- रंजीत सिंह


नौकरी..!!


रोज की तरह दफ़्तर जाते समय जब मैं मालरोड पहुंचा तो लोगों की भारी भीड़ देख ठिठक गया। नजदीक जा कर देखा तो एक सिपाही और कुछ व्यक्ति खून से लथपथ हुए एक व्यक्ति को हाथों पैरों से उठा कर एक तरफ कर रहे थे।

"ये तो खत्म हो गया लगता है ।" एक बूढ़ी औरत कह रही थी।
"सिर पर गहरी चोट लगी है शायद। कसूर इसका ही था, मैंने खुद देखा है, भला-चंगा जा रहा था, बस भी तेज नहीं थी, इसने अपनी साइकिल अचानक बस की ओर घुमा दी थी।" पास खड़ा एक और व्यक्ति बोला।

"अरे यार ये तो दीवान है, अपने दफ़्तर का फोरमैन, इसने तो परसों रिटायर होना था, यह तो बहुत बुरा हुआ। अभी तो इसके लडक़े भी कुंवारे हैं ।" पास में खड़े मेरे दोस्त के मुंह से दीवान का नाम सुन कर मैं जैसे सुन्न हो गया।

मुझे याद आया, अभी परसों शाम तो ये घर आया था, अपने बेटे की नौकरी की बात कर रहा था। मैंने उसे बताया था कि डिपार्टमैंट की तरफ से लडक़े को देने का कोटा खत्म कर दिया गया है। बस मौत हो जाने की सूरत में ही एक बच्चे को नौकरी मिल सकती है।

मेरी बात सुन कर वो उठा और चला गया था। उसके चेहरे की उस अन्जानी सी खुशी का राज मुझे अब समझ आ रहा था।

- रंजीत सिंह