Wednesday 19 November 2014

जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आए..!!

जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आए
हम आज उसको बड़ी उलझनों में छोड़ आए,

अगर हरीफ़ों में हता तो बच भी सकता था
ग़लत किया जो उसे दोस्तों में छोड़ आए,

सफ़र का शौक़ भी कितना अजीब होता है
वो चेहरा भीगा हुआ आँसों में छोड़ आए,

फिर उसके बाद वो आँखें कभी नहीं रोयीं
हम उनको ऐसी ग़लतफ़हमियों में छोड़ आए,

महाज़-ए-जंग पे जाना बहुत ज़रूरी था
बिलखते बच्चे हम अपने घरों में छोड़ आए,

जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया
हम उन परिन्दों को फिर घोंसलों में छोड़ आए..!!

ये दरवेशों कि बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा..!!

 ये दरवेशों कि बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबास ऐ ज़िन्दगी फट जाएगा मैला नहीं होगा,

शेयर बाज़ार में कीमत उछलती गिरती रहती है
मगर ये खून ऐ मुफलिस है महंगा नहीं होगा,

तेरे एहसान कि ईंटे लगी है इस इमारत में
हमारा घर तेरे घर से कभी उंचा नहीं होगा,

हमारी दोस्ती के बीच खुदगर्ज़ी भी शामिल है
ये बेमौसम का फल है ये बहुत मीठा नहीं होगा,

पुराने शहर के लोगों में एक रस्म ऐ मुर्रव्वत है
हमारे पास आ जाओ कभी धोखा नहीं होगा..!!

जब साफगोई को फैशन बना लिया मैंने..!!

 जब साफगोई को फैशन बना लिया मैंने
हर एक शख्स को दुशमन बना लिया मैंने,

हुई न पूरी जरूरत जब चार पैसों की
तो अपनी जेब को दामन बना लिया मैंने,

शबे-फिराक* शबे-वसल* में हुई तब्दील
खयाले-यार को दुल्हन बना लिया मैंने,

चमन में जब ना इज़ाज़त मिली रिहाइश की
तो बिज़लीयों में नशेमन बना लिया मैंने..!!

मोहब्बत में तुम्हे आंसू बहाना नहीं आया..!!

 मोहब्बत में तुम्हे आंसू बहाना नहीं आया,
बनारस में रहे और पान खाना नहीं आया !

न जाने लोग कैसे है मोम कर देते है पत्थर को,
हमें तो आप को भी गुदगुदाना नहीं आया!

शिकारी कुछ भी हो इतना सितम अच्छा नहीं होता,
अभी तो चोंच में चिड़िया के दाना तक नहीं आया..!!

ये कैसे रास्ते से लेके तुम मुझको चले आए,
कहा का मैकदा इक चायखाना तक नहीं आया !

मुहाजिर नामा..!!

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।

ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं ।

महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।

वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं ।

हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं ।

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं ।

उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं ।

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं ।

उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं ।

हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं ।

कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं ।

वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।

अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं ।

मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।

जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।

महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं ।

तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं ।

सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं ।

हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं ।

गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं ।

तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं ।

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं ।

हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।

थकन को ओढ़ कर बिस्तर में जाके लेट गए..!!

 थकन को ओढ़ कर बिस्तर में जाके लेट गए
हम अपनी कब्र -ऐ -मुक़र्रर में जाके लेट गए,

तमाम उम्र हम एक दुसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जाके लेट गए,

हमारी तश्ना नसीबी का हाल मत पुछो
वो प्यास थी के समुन्दर में जाके लेट गए,

न जाने कैसी थकन थी कभी नहीं उतरी
चले जो घर से तो दफ्तर में जाके लेट गए,

ये बेवक़ूफ़ उन्हे मौत से डराते हैं
जो खुद ही साया -ऐ -खंजर में जाके लेट गए,

तमाम उम्र जो निकले न थे हवेली से
वो एक गुम्बद -ऐ -बेदर में जाके लेट गए,

सजाये फिरते थे झूठी अना को चेहरे पर
वो लोग कसर -ऐ -सिकंदर में जाके लेट गए..!!

एक करोड़ का सवाल..!!

टीवी कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में एक करोड़ के अंतिम सवाल पर मुस्कुराते हुए बिग बी ने प्रतियोगी से कहा- ‘आप बहुत भाग्यशाली हैं, इस सीट पर बैठ कर एक करोड़ के सवाल का जवाब देने वाले आप पहले व्यक्ति हैं। जवाब आपको सोच समझ कर देना है। इसका जवाब सही देने पर आपको मिलेंगे एक करोड़ रुपये, प्रसिद्धि, सम्मान और गलत जवाब देने पर आप निराश हो कर लौटेंगे, क्योंकि आपने पचास लाख कमाने का भी अवसर खो दिया है। उन्होंने प्रतियोगी की तरफ व्यंग्यपपूर्ण मुस्कान बिखेरी।

प्रतियोगी ने कहा-‘जी।
‘कैसा लग रहा है आपको।' बिग बी ने पूछा।
जवाब मिला- बहुत रोमांचित हूँ।‘
मैं भी ।‘ बिग बी ने कहा। मैं भी देखना चाहता हूँ कि कौनसा सवाल है, एक करोड़ का। मुझे भी नहीं मालूम, विश्वास कीजिये मुझे भी नहीं मालूम।'

सभी हँसने लगे। कुर्सी सँभालते हुए बिग बी ने कार्यक्रम आगे बढ़ाया। वे बोले- ’तो आप तैयार हैं, एक करोड़ के सवाल को सुनने, पढ़ने और अपना भाग्य आजमाने के लिए?’
’हाँ।' प्रतियोगी ने भी मुसकुराकर कहा।
बिग बी ने हाथ मसलते हुए कहा- ‘तो लीजिये, आपका एक करोड़ का सवाल।' उन्होंने सवाल पहले अँग्रेजी में पढ़ा और फिर उसे हिदी में दोहराया ‘आज देश में बढ़ते असंतोष, भ्रष्टाड़चार, महँगाई और अनेक समस्याओं के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेमदार कौन है? और कहा- ‘जल्दबाजी नहीं, आपके पास बहुत समय है, सही जवाब आपको करोड़पति बना देगा और ग़लत जवाब आपको----आप--- समझते –ही-- हैं।'
प्रतियोगी बहुत देर तक सोचता रहा। बिग बी ने कहा- ‘आपके पास सारी सुविधाएँ भी खत्म हो गयी हैं। आप किसी से पूछ भी नहीं सकते। अब आपको ही निर्णय लेना है कि ए- जनता, बी- नेता, सी- सरकार और डी- पुलिस, इसमें से कौन-सा विकल्प चुनना है।'

थोड़े से सन्नाटे के बाद, प्रतियो‍गी ने कहा- ‘सरकार।' बिग बी ने कहा- ‘सी, सरकार।‘
"आप पूरी तरह से आश्वस्त हैं? जल्दमबाजी नहीं करें। सोचें, कि इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कौन है, जनता, नेता, सरकार या पुलिस। एक बार जवाब ताला लग गया, तो आपके सारे रास्तेज बंद, फि‍र मैं भी कुछ नहीं कर पाउँगा।'
’जी। मैं जानता हूँ, मेरा जवाब है ‘सी’ सरकार’।' प्रतियोगी ने कहा।

’तो आपको पूरा विश्वास हैं, सी, स—र—का—र।' बिग बी ने गंभीरता से कहा-‘तो लॉक कर दिया जाये?' ’जी।' ’तो लॉक किया जाये। कम्प्यूटर जी, जवाब लॉक करें, आपका जवाब है, सी-सरकार।'

जवाब लॉक कर दिया गया। थोड़े सन्नाटे के बाद बजर बजा। बिग बी अपनी सीट से उठ खड़े हुए और बोले- ‘ओ---ह।’ बैठे हुए प्रतियोगी के साथ-साथ कार्यक्रम में सम्मिलित लोगों में कौतूहल जाग गया। वे भी उठ कर कर खड़े हो गये।
’यह जवाब ग़लत है।' बिग बी के बोलते ही सन्नाटा छा गया। बिग बी ने प्रतियोगी से कहा- ‘आपका जवाब ग़लत था।
सही जवाब है- ‘जनता..!!

आत्महत्या..!!

वे दोने बड़ी देर से गाँव में थोड़ी दूरी पर स्थित लाइनों का पास घुम रहे थे। कभी इधर से उधर कभी उधर से इधर। वह रेलवे पटरी के इस ओर था, जब कि वह दूसरी ओर थी। एक से दूसरी ओर जाते हुए जब भी वे एक दूसरे की सीध में आते, कनखियों से एक दूसरे की ओर देखने लगते। दोनों एक दूसरे की स्थिति को समझ भी रहे थे।

इसी प्रकार जब काफी देर बीत गयी तो लड़के ने साहस जुटाते हुए पूछा- आप शायद किसी की प्रतीक्षा कर रही हैं।
-हाँ... और आप? लड़की अब थोड़ा आगे आ गई थी। दोनो रेल पटरी के साथ वाले कच्चे पथ से थोड़ा ऊपर कटे फटे पत्थरों पर आ खड़े हुए थे।
-मैं भी किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कह कर लड़का फिर कच्चे पथ पर जिधर से आया था, उसी ओर बढ़ गया। लड़की भी उसके विपरीत वाली दिशा की ओर चल दी। अब जब वे एक दूसरे के निकट आए तो उन्होंने एक दूसरे की ओर कनखियों ने नहीं, अपितु थोड़ा-सा मुस्कुरा कर देखा।

अचानक लड़के ने लड़की के पास आकर कहा- सच बताइये कहीं आप निराश होकर... नहीं, ऐसा मत कीजियेगा। आप बहुत अच्छी हैं, सुंदर भी।
लड़का चलने को हुआ तो इस बार लड़की ने पूछ लिया- क्या आप भी... न-न, कोई गलत कदम न उठाइयेगा। कितने आकर्षक हैं आप...युवा भी।
-हाँ... इस बार बारी फिर लड़के की थी। - सच कहूँ...आया तो मैं सचमुच खुदकुशी करने के लिये ही था, किंतु शायद गाड़ी लेट हो गई हैं।
-मैं भी यदि सच कहूँ तो इरादा मेरा भी कुछ यही था... किन्तु आप हैं कि यहीं मंडराए जा रहे थे। मेरे आसपास। इसलिये आत्महत्या का अवसर ही नहीं मिला।

दोनो अब थोड़ा हटकर एक वृक्ष की छाया में जा बैठे थे, एक दूसरे के सामने।
-एक बात पूछूँ? लड़का जैसे संकोच को तोड़ना चाहता हो- आप आत्महत्या क्यों करना चाहती थीं? क्या किसी से प्रेम व्रेम का चक्कर...
-चक्कर नहीं, मैं सच में उससे प्रेम करती थी, परन्तु उसने मुझसे छल किया...वह शायद मुझसे नहीं मेरे जिस्म से प्यार करता था... धोखेबाज!... और आप? लड़की थोड़ा आगे सरक आई थी।
-आज मेरा विवाह होना तय था, परन्तु जिससे मेरा विवाह होने जा रहा था, वह एक रात पहले ही घर से भाग गई... शायद वह किसी और से प्रेम करती हो... पर मैं तो कहीं का भी नहीं रहा न! लड़के ने अचानक उसका हाथ पकड़ लिया था।

दोनों बड़ी देर ऐेसे ही बैठे रहे। अचानक धरती पर उपजे कंपन से दोनों ने जाना कि गाड़ी आने वाली है। अचानक लड़के ने कहा- मैंने इरादा बदल लिया है... मैं आत्महत्या नहीं करना चाहता। आप...?
- मैं भी तो मरना नहीं चाहती किन्तु...! अब लड़की ने भी लड़के का हाथ पकड़ लिया था।

इसी बीच गाड़ी बाएँ से आकर दायें को चली गई। अचानक लड़के ने पूछा क्या में सचमुच आकर्षक हूँ?
हूँ...! सच में। और मैं क्या सचमुच सुंदर हूँ? लड़की ने आँखें नीचे झुका लीं थीं।
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद लड़की ने कहा- मुझे घर ले चलो... उसी वेदी पर जहाँ वह लड़की नहीं आ सकी। मैं...
- नहीं ! वह स्थान शायद आपके योग्य अब नहीं रहा। हम अपना अलग घर बसाएँगे...आओ चलें।
दोनो एक दूसरे का हाथ थामे वापस शहर की ओर चल पड़े।

महँगाई डायन..!!

संक्रान्ति के बाद आज पहली बार बाज़ार आया था। टुसू के बाद की शांति खत्म होने लगी थी। सुबह-सुबह की ठण्ड में जीवन अपनी भाग-दौड़ में लगा था। सब्जियों से लदी ऑटो को रास्ता देने के लिए एक किनारे हुआ तो पकते गुड़ की खुशबू ने रोक लिया। मैं खड़ा होकर अपने आस-पास की हलचल देखने लगा. आते-जाते लोगों के बीच से निगाहें उन हाथों पर रुक गयी जो मुढ़ी-गुड़ के 'लाई' बना रही थी। खड़े होकर मैंने मुँह से सांस छोड़ी। हवा में धुंध की एक चादर सी बन गयी। मैं मुस्कुराया। मुझे एक बच्चे जैसा मज़ा आया।

एक हाथ पॉकेट में डाले, दूसरे हाथ में थैला हिलाता मैं एक दुकान के सामने था।
"कैमोन आछो काकी?"
"भालो...."
आवाज़ ने शब्दों का साथ नही दिया।
"की चाई?"
"फूल कितने का?" मैं अब अपनी औकात पर आ गया था क्योंकि बांग्ला में मेरे हाथ जरा तंग हैं।
"आपसे क्या दाम करेगा बाबू? २० में बेच रहा है, आपको १९ में दे देगा..."
"और बैंगन? अरे हाँ... मूली कितने की है?"
काकी अनमने ढंग से सब्जी के टोकरे इधर उधर करती रही।
"कोई दिक्कत ....?" मेरे अन्दर का बच्चा काफुर हो चूका था।
"क्या बोलेगा बाबू, रमना गुस्सा है. एई लेके मन नई लगता है।"
"रमना... कौन?"
"मेरा लड़का, बाबू. कंपनी भीतरे ठीकादारी में काम करता है. आपको क्या चाहिए बाबू?"
"एक फूलगोभी, आधा किलो बैंगन और आधा किलो मूली दे दो।"
"गोभी का डंठल और मूली का पत्ता तोड़ के रख लेगा बाबू?"
"हाँ..हाँ. गोभी के डंठल और मूली के पत्ते तोड़ कर रख लेना।"
"ठीक है बाबू...." और उसने सारा सामान मेरे थैले में डाल दिया। मैंने पैसे दिए और घूमा कि एक युवक मुझे लगभग धकियाता दुकान की किनारे वाली गली में घुसा।

मैं बुरा-सा मुँह बना कर आगे बढ़ गया। मेरे पीछे का कोलाहल बढ़ते-बढ़ते शोर और फिर झगडे का रूप ले चुका था। जी में आया कि देखूं, आखिर हो क्या रहा है; किन्तु मुझ जैसा लेखक-टाईप आदमी ऐसी स्थितियों से बच कर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझता हैं। घूमते-घूमते अब मैं सब्जी-मंडी के दूसरी ओर हैंडपंप तक आ गया था। लोगों की लम्बी कतार के बीच काकी भी अपनी बाल्टी लिए दीख गयी।

मैं मुस्कुराया, "आपकी दुकान के पास क्या हल्ला-हंगामा हो रहा था?"
काकी कतार से बाहर आ गयी थी, "बाबू, आप ही बताओ; हम सब्जी काहे को बेचता है? पेट के लिए ना. लड़का को पढ़ा दिया, अब नौकरी भी लगा है, माँ कितना दिन खिलायेगा?"
"पर हुआ क्या?"
"पहले हम बचा-हुआ सब्जी उसका घर-वाली को दे आता था। उसका खर्चा बच जाता था। जबसे सब्जी महँगा हुआ है, हम अपने-ही गोभी का डंठल और सूखा साग खा रहा है, उसको कहाँ से देगा? उसको दे देगा तो महाजन का कर्जा कौन तोड़ेगा?" काकी की आँखें भर आयी थी। आँखों में दिल का दर्द छलक आया। मैं खामोश हो गया। कुछ समझ नही आया तो मैं आगे बढ़ गया. पास के सैलून से गाने की आवाज़ आ रही थी, "सखी सैयां तो खूबै कमात है, महँगाई डायन खाय जात है"।

तनाव..!!

साल में एक बार छोटा आता ही है परिवार सहित। और जब भी छोटा आता है बड़े के दिमाग में एक तनाव बना रहता है। ये तनाव तब तक बना रहता है जब तक छोटा इस घर में रहता है। यह बात वह किसी से कहता नहीं, किसी को मालूम भी नहीं होने देता, अपनी पत्नी को भी नहीं।
ये तनाव क्यों होता है जानता है वह।
जैसे ही फोन पर कबर मिलती है कि छोटा आ रहा , तब घर का नक्शा ही बदल जाता है। पूरे घर की साफ-सफाई होती है सोफे के कवर और खिड़कियाँ, दरवाजे के पर्दे बदल दिये जाते हैं। ये सब माँ ही करती है। उसकी समझ में नहीं आता कि क्यों? बैंक में मैनेजर है छोटा। ऊँची पोस्ट पर है। ऊँची सोसायटी में उठता बैठता है, शायद इसी वजह से। छोटा चाय नहीं, काफी पीता है। बच्चे हार्लिक्स पीते हैं। खाने पीने पर खास ध्यान दिया जाता है। माँ उसके ही बच्चों में खोई रहती है।
इस बीच वह यह भी महसूस करता है कि जब तक छोटा इस घर में रहता है उसका महत्त्व कम हो जाता है। किसी भी बात के लिये उससे सलाह नहीं ली जाती, नही उससे कुछ पूछा जाता है। पिताजी बैठे बैठे छोटे से ही बतियाते रहते हैं। यदि वह वहाँ पहुँच जाए तो चुप हो जाते हैं। बस, यही कारण है उसके तनाव का, वह महसूस करता है।
मोटर साइकिल स्टैंड पर खड़ी करते हुए उसने देखा कि छोटा और पिताजी ड्राइंग रूम में बैठे हुए बातें कर रह हैं। सामने टीवी चल रहा है। माँ उठकर दरवाजे पर आ गयी। माँ ने पूछा, "आज बहुत देर कर दी, कहाँ था?
"कहीं नहीं, यहीं ऐसे ही।" कहता हुआ वह अपने कमरे की ओर बढ़ गया। वह साफ झूठ बोल गया। तनाव की वजह से वह पिक्चर हाल में जाकर बैठ गया था। पिक्चर छूटने के बाद भी वह इधर-उधर घूमता रहाष रात के पूरे ग्यारह बजे तक।
वह कमरे में घुसा। बच्चे सो चुके थे। उसकी पत्नी पलंग पर लेटी हुई कोई मैगजीन पढ़ रही थी। कपड़े उतार कर वह बाथरूम में फ्रेश होने चला गया। वहाँ से आया तो तौलिये से हाथ मुँह पोंछते हुए पत्नी से बोला, "खाना लगा दो... बहुत भूख लगी है।"
"
अकेले ही खाओगे?" पलंग से उठती हुई पत्नी बोली।
"क्यों"?
"पिताजी और भाई साहब भी बिना खाना खाए बैठे हैं अभी तक... उन्होंने भी खाना नहीं खाया है। कब से तुम्हारी राह देख रहे हैं।" पत्नी ने कहा।
"अरे, उन्हें खा लेना चाहिये था।"
कभी तुम्हारे बगैर खाया है उन्होंने सब एक साथ ही तो खाते हैं। पत्नी ने कहा और खाना लगाने चली गई।

वह ठगा सा खड़ा रह गया उसका गहरा तनाव बर्फ बनकर पिघल गया।
खाना खाने के बाद वह पूरी तरह तनावमुक्त था।

Tuesday 18 November 2014

बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है..!!

बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेष बदल कर मेरी तलाश में है।

मैं एक कतरा हूं मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है ।

मैं देवता की तरह कैद अपने मन्दिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है।

जिसके हाथ में एक फूल देके आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है..!!

ग़मों ने बाँट लिया मुझको ख़ज़ाने की तरह..!!

ग़मों ने बाँट लिया मुझको ख़ज़ाने की तरह
बिखर गया हूँ हर गली में फ़साने की तरह,

मुझे कुछ इस तरह से ढ़ूँढ़ रही है गर्दिश
के जैसे मै हूँ शिकारी के निशाने की तरह,

के रात रात न हो, कोई चिता हो जैसे
के जैसे ख़्वाब हों जलने के बहाने की तरह,

मै कोई संग न था मै तो एक शीशा था
पटक दिया मुझे पत्थर पे ज़माने की तरह,

ये वहम ये ख़लिश ये वफ़ा-मिजाज़ ज़ेहन
इन्होने कर दिया मुझको दीवाने की तरह..!!

कहने को कह गए कई बात ख़ामोशी से..!!

कहने को कह गए कई बात ख़ामोशी से
कटते-कटते कट ही गई रात ख़ामोशी से,

न शोर-ए-हवा, न आवाज़-ए-बर्क़ कोई
निगाहों में अपनी हर दिन बरसात ख़ामोशी से,

शायद तुम्हें ख़बर न हो लेकिन यूँ भी
बयाँ होते हैं कई जज्बात ख़ामोशी से,

दिल की दुनिया भी कितनी ख़ामोश दुनिया है
किसी शाम हो गई इक वारदात ख़ामोशी से,

माईले-सफर हूँ, बुझा-बुझा तन्हा-तन्हा
पहलू में लिए दर्द की कायनात ख़ामोशी से,

मुट्ठी में रेत उठाये चला था जैसे मैं
आहिस्ता-आहिस्ता सरकती गई हयात ख़ामोशी से,

मिटा मिटा कर तेरी तस्वीरें बनाईं है मैंने..!!

अक्सर वो ही बातें बा_रहां दोहराईं हैं मैंने
मिटा मिटा कर तेरी तस्वीरें बनाईं है मैंने,

जिस हंसीं फरेब से ता_उम्र तौबा किया था
फिर वो ही गज़लें आज महफिल मे गाईं हैं मैंने,

मेरी आँखों के अब कोई सागर ना लुटे
बहुत टूट हूँ तब ये नदियाँ बहाईं है मैंने,

मेरी आदत में नही था यारों दर्द रोना
बहुत बेबस में ये मजबूरियाँ सुनाई है,

मैंने मुद्दतों बाद फिर हँसते देखा है उनको
उनकी तकलीफें आज ख़ुदा को बातईं है मैंने,

फिर जीने की दिल को हसरत सी हुई है
एक बार फिर कमजोरियाँ जताईं है मैंने..!!

विवशता..!!

कॉलेज छोड़ने के बाद यह हमारी पहली मुलाक़ात थी। मित्र को न जाने कैसे पता चल गया कि मैं इस कॉलोनी में हूँ। कमरे में बैठते ही मैंने आवाज़ लगाई, ''सुनीता! देख, आज कौन आया है?''
पत्नी संभवतः घर पर नहीं थी। उत्तर नहीं मिला। इतने में मेरी पाँच वर्षीय लाड़ला आ धमका और पैरों से लिपटते हुए बोला, ''पापा! पापा! मम्मी गुप्ता आंटी के घर गई हैं।''

रोज़ का हाल है यह! किसी न किसी चीज़ के लिए पत्नी को पड़ोस में भागना पड़ता है। माह के आखिरी दिन थे। मित्र के अकस्मात आगमन से मैं मुश्किल में फँस गया था।
मित्र ने ध्यान भंग किया, ''और कितने बच्चे हैं... राजेश?''
''दो ओर हैं- एक लड़का... एक लड़की, दोनों स्कूल गए हैं!'' मैंने बरबस मुस्कराने का यत्न किया।
''अब और नहीं होने चाहिए।'' मित्र की फीकी हँसी बड़ी देर तक कमरे में लटकी रही।
समय निकलता जा रहा था और अभी तक हम चाय नहीं पी पाए थे। पत्नी की अनुपस्थिति खलने लगी। ''शायद, पत्नी स्कूल चली गई- बच्चों को लेने। आज हाफ डे है न!''
मैंने अपनी कमज़ोरी छिपाई। सच्ची-झूठी बातें कब तक झेलता। मैंने बबूल से कहा, ''बेटा! ज़रा देख तो आ मम्मी को। कहीं बिहारिन आँटी के घर न हों। अभी तक तो हम दो बार चाय पी चुके होते।''
''छोड़ भी यार। जब से बैठा हूँ। चाय की रट लगा रखी है। मैं हर पंद्रहवें दिन दिल्ली आता हूँ, फिर कभी पी लेंगे चाय... भाभी के हाथ की। मुझे चलने दे अब!'' यह कहकर मित्र उठ खड़ा हुआ।
मैंने रोकना चाहा पर वह नहीं माना और बबलू को दस का नोट थमाकर बाहर निकल आया। मैंने बबलू को खींचकर झट से अंदर किया और उसे समझाया, ''तुम यहीं रहना। मम्मी से कहना पापा बाज़ार गए हैं।''
बबलू सिर खुजलाता रह गया।
अब हम दोनों सड़क नाप रहे थे। मैंने कहा, ''यार! इतने दिनों बाद मिले और एक कप चाय भी न पिला पाया। घर न सही चलो किसी दुकान में बैठकर पी लेते हैं।''
हम दोनों एक ढाबे में बैठ गए। चाय के सा समोसे भी मँगा लिए थे। चाय पी चुकने के बाद मैंने कुछ हल्कापन महसूस किया। मैंने बड़े रोब में दुकानदार को पैसे बढ़ाए! यह क्या... मेरा हाथ काँप रहा था। दुकानदार बोला, ''बाबू जी! आज इतनी सर्दी नहीं है... फिर भी...।''
मेरे हाथ में बबलू को दिया गया मित्र का वह दस रुपए का नोट फड़फड़ा रहा था। शायद मित्र न समझ पाया हो। फिर भी मेरा हाथ बड़ी देर तक काँपता रहा।

बेबस विद्रोह..!!

उस दिन तो अजब हो गया। पलभर में हंगामा खड़ा हो गया। सुशीला अवाक खड़ी चुपचाप पार्वती का मुँह देख रही थी। कच्छा भीड़े हुए वह घायल शेरनी की तरह दहाड़ रही थी।
``मालकिन हम गरीब हैं। आपके घर में झाड़ू-बुहारू करते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि हमारी कोई इज़्ज़त-विज़्ज़त नहीं है। आप लोगों को जब जो जी चाहे बोल लीजिए।'' बोलते-बोलते वह हाँफने लगी थी।
हाथ में पकड़े झाड़ू को उसने फेंक दिया और मालकिन की तरफ़ आँखें फाड़कर देखने लगी।
''अरे पार्वती क्या हुआ शांत हो जा। आखिर मैं भी तो सुनूँ बात क्या है? ऐसा क्या हुआ कि तूने सारा घर सर पर उठा लिया?'' पार्वती को शांत करती हुई सुशीला ने पूछा।
मालकिन की प्यार भरी बातों ने पार्वती को भीतर तक भींगो दिया। उसकी आँखें छलछला आईं। स्नेह पाकर उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा। सुबकते हुए उसने कहा, ''मालकिन! अब मुझसे ई धर में काम नहीं होगा। जहाँ आदमी की इज़्ज़त न हो, वहाँ तो पल भर भी नहीं रुकना चाहिए। मालकिन! आप मेरा हिसाब कर दें। मैं दूसरी जगह चली जाऊँगी।''
''कर ले अपना हिसाब-किताब और फूट यहाँ से। नहीं तो...'' यह सुशीला की बहू की आवाज़ थी।
''नहीं तो, क्या कर लेंगीं आप? बोलिए न बीबी जी! मैं मुफ़्त के पैसे नहीं लेती। हाड़ तोड़ती हूँ तो पैसे लेती हूँ। फिर धौंस किस बात की?''
''अरी पार्वती! तू बहू की बातों पर न जा! उसने अभी दुनियादारी कहाँ देखी है। और तू बता, तू तो मुझे माँ जैसा आदर देती है। मैं भी तुझे बेटी की तरह मानती हूँ। तू बता, अगर तू सचमुच मेरी बेटी होती, तो क्या बहू के इतना कहने पर मुझे छोड़कर चली जाती?'' डबडबाई आँखों से सुशीला ने पार्वती को देखते हुए कहा।
सुशीला की डबडबाई आँखों को देखकर पार्वती के मन का गुस्सा ख़त्म हो गया था। उसने कुछ कहा नहीं। वह चुपचाप उठी और अपने को काम में लगा दिया।

Saturday 25 October 2014

चले हैं आज ज़माने को आज़माये हुए..!!

चले हैं आज ज़माने को आज़माये हुए
ये देखो खून में अपने ही हम नहाये हुए

न जाने मुझको हुआ कौन सा मक़ाम हासिल
लुटा के घर भी चला हूं मै सर उठाये हुए

ना उसकी ख़ता थी न थी ख़ता मेरी
निकल रहे हैं मगर हम नज़र चुराये हुए

लो आज फिर से उसने मेरे दिल को तोड़ा है
उसे भी वक़्त हुआ है मुझे सताये हुए

ये जो है हुस्न का सदक़ा समझ नहीं आया
मेरी पहलू में भी हैं वो नज़र झुकाये हुए

जहां मुहाल था एक पल भी ठहरना यारों
ज़माने बीते वहां हम को युग बिताये हुए

अपनी तबाहियों का ग़िला नहीं है हम को
हम आज भी हैं उसकी अज़्मतें बचाये हुए..!!

महक तेरी साँसों की इन साँसों मैं अब भी है..!!

महक तेरी साँसों की इन साँसों मैं अब भी है
तू ना आई पर तेरा इंतज़ार अब भी है,

जो भी पल साथ गुजारे हम ने
उन पलों की याद इस दिल मैं अब भी हैं,

तूने जिस मोड़ पर साथ छोड़ा मेरा
उस मोड़ पर तेरे क़दमो की आहट अब भी हैं,

तेरे मिलने से पहले रूखी थी ये ज़िंदगी
पर तेरे जाने के बाद तन्हा हम अब भी हैं..!!

वो कह के चले इतनी मुलाक़ात बहुत है..!!

वो कह के चले इतनी मुलाक़ात बहुत है
मैं ने कहा रुक जाओ अभी रात बहुत है,

आँसू मेरे थम जायें तो फिर शौक़ से जाना
ऐसे मैं कहाँ जाओगे बरसात बहुत है,

वो कहने लगी जाना मेरा बहुत ज़रूरी है
नही चाहती दिल तोड़ना तुम्हारा, पर मजबूरी है,

अगर हुई हो कोई खता तो माफ़ केर देना
मैं ने कहा हो ज़ाओ चुप ,इतनी कही बात बहुत है,

समझ गया हूँ सब, और कुछ कहो ज़रूरी नही
बस आज की रात रुक जाओ, जाना इतना भी ज़रूरी नही,

फिर कभी ना आउंगा तुम्हारी ज़िंदगी में लौट के
सारी ज़िंदगी तन्हाई के लिए आज की रात बहुत है,

तुम फिर भी ना रुके, पलट के ना देखा, चल ही दिए
हमारे जीने के लिए तुम्हारी वो यादें बहुत हैं..!!

यूँ तन्हा जीने की मुझे आदत सी हो गयी है..!!

यूँ तन्हा जीने की मुझे आदत सी हो गयी है
अनजान रास्तों पे चलने की आदत सी हो गयी है

वो मेरी मोहब्बत से रहें बे-ख़बर ता उमर
मुझे ये दुआ माँगने की आदत सी हो गयी है

कब तक झूठलाउंगा उन से मोहब्बत अपनी
मेरी आँखों को सच बोलने की आदत सी हो गयी है

ना जाने क्यों शाम ढलते ही ये आँखें भीग जाती हैं
मुझे इस चेहरे को अशक़ो में चुपाने की आदत सी हो गयी है

आसमा में चमकता हर सीतारा ये गवाही देगा
मुझे तुम्हारी यादों में नींदें गवाने की आदत सी हो गयी है

इस दुनिया में शायद मेरी मोहब्बत को कोई ना समझ सके
लोगो को मुझे ना समझपाने ने की आदत सी हो गयी है

महफ़िल में हर शख्स ये गिला करता है
मुझे तन्हाईओं में डूबने की आदत सी हो गयी है..!!

कौन था जो..!!

कौन था जो मुझको पहचान देकर चल दिया
वेरिदा तहरीर को उन्वान देकर चल दिया ॥

भूखे बच्चो को केवल हसरत थी वासर रोटिंया
मैं उन्हें पत्थर का एक भगवन देकर चल दिया ॥

आख़िरी रात के सफर में गैर भी कुछ साथ थे
अपनेपन का मैं उन्हें सम्मान देकर चल दिया ॥

उसने शिरकत की थी अश्को की तिजारत में मगर
तनहा मुझको छोड़कर नुकसान देकर चल दिया ॥

सर्द संनाहे में दिल को आरजू थी गीत की
राज था कौन जो तूफान देकर चल दिया ॥

बीच का रास्ता..!!

"हाय, करूणा, आज कित्ते दिन बाद दिख रही है तू? मुझे लगा या तो नौकरी बदल ली तूने या ट्रेन?"
"कुछ नहीं बदला शुभदा, सब कुछ वही है, बस जरा होम फ्रंट पर जूझ रही थी, इसलिए रोज ही ये ट्रेन मिस हो जाती थी।"
"क्यों क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?"
"वही सास ससुर का पुराना लफड़ा। होम टाउन में अच्छा खासा घर है। पूरी जिंदगी वहीं गुजारने के बाद वहाँ अब मन नहीं लगता सो चले आते हैं यहाँ। हम दोनों की मामूली सी नौकरी, छोटा सा फ्लैट और तीन बच्चे। मैं तो कंटाल जाती हूँ उनके आने से। समझ में नहीं आता क्या करूँ।"

"एक बात बता, तेरे ससुर क्या करते थे रिटायरमेंट से पहले?"
"सरकारी दफ्तर में स्टोरकीपर थे।"
"उनकी सेहत कैसी है?"
"ठीक ही है।"
"उन दोनों में से कोई बिस्तर पर तो नहीं है?"
"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस, बुढ़ापे की परेशानियाँ है, बाकी तो...।"
"और तेरा सरकारी मकान है। तेरे ही नाम है ना...तेरे हस्बैंड की तो प्राइवेट नौकरी है . . . ?"
"हाँ है तो...।"
"और तेरे ससुर की पेंशन तो १५०० से ज्यादा ही होगी?"
"हाँ होगी कोई २३०० के करीब।"
"बिलकुल ठीक। और तू रोज रोज के यहाँ टिकने से बचना चाहती है?"
"चाहती तो हूँ, लेकिन मेरी चलती ही कहाँ है। घर में उनकी तरफदारी करने के लिए बैठा है ना श्रवण कुमार।"

"अब तेरी ही चलेगी। एक काम कर। अपने ऑफिस में एक गुमनाम शिकायत डलवा दे कि तेरे नॉन डिपेंडेंट सास ससुर बिना ऑफिस की परमिशन के तेरे घर में रह रहे हैं। तेरे ऑफिस वाले तुझे एक मेमो इश्यू कर देंगे, बस। सास ससुर के सामने रोने धोने का नाटक कर देना...कि किसी पड़ोसी ने शिकायत कर दी है। मैं क्या करूँ? ऐसी हालत में वे जायेंगे ही।"
"सच, क्या कोई ऐसा रूल है?"
"रूल है भी और नहीं भी। लेकिन इस मेमो से डर तो पैदा किया ही जा सकता है।"
"लेकिन शिकायत डालेगा कौन?"
"अरे, टाइप करके खुद ही डाल दे। कहे तो मैं ही डाल दूँ। मैंने भी अपने सास–ससुर से ऐसे ही छुटकारा पाया है।"

गुरु दक्षिणा..!!

"अरे मास्टरजी... आप? आइए.. आइए.." इतने वर्षों के बाद मास्टरजी को अचानक अपने सामने पा कर मैं चौंक ही गया था। मास्टरजी... कहने को तो गाँव के जरा से मिडिल स्कूल के हेडमास्टर.. मगर मेरे आदर्श शिक्षक, जिनकी सहायता और मार्गदर्शन की बदौलत ही उन्नति की अनगिनत सीढियां चढ़कर मैं इस पद पर पहुँचा था। बीस साल पहले की स्मृतियाँ अचानक लहराने लगी थी आँखों के सामने... तब और अब में जमीन -आसमान का फर्क था... कल का दबंग-कसरती शरीर अब जर्जर - झुर्रीदार हो चला था। आँखों पर मोटे फ्रेम की ऐनक, हाथ में लाठी जो उनके पाँवों के कंपन को रोकने में लगभग असफल थी। मैली सी धोती, उस पर लगे असंख्य पैबंद छुपाने को ओढी गई सस्ती सी शाल... मेरा मन द्रवित हो गया था। भाव अभिभूत होकर मैंने मास्टर जी के पाँव छू लिए। मास्टर जी के साथ आए दोनों व्यक्ति चकित थे.. मुझ जैसे बड़े अधिकारी को मास्टर जी के पाँव छूते देख और साथ ही एक अनोखी चमक आ गई थी उनके मुख पर कि मास्टर जी को साथ लाकर उन्होंने गलती नहीं की है। मास्टर जी के चहरे पर विवशता लहराने लगी थी, जैसे मेरा पाँव छूना उन्हें अपराध बोध से ग्रस्त किए दे रहा हो।

"कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ? " क्या आदेश है मेरे लिए? " अपने चपरासी को चाय- नाश्ते का आर्डर देकर मैं उनसे मुखातिब हुआ।
"जी.., वो कल आपसे बात हुई थी ना..." मास्टर जी के साथ आए व्यक्ति ने मुझे याद दिलाया .." ये रवींद्र है, मास्टर जी का पोता .. इसी की नौकरी के सिलसिले में ...

यह व्यक्ति दो-तीन महीने से मेरे विभाग के चक्कर काट रहा था। वह चाहता था कि कैसे भी करके इसके बेटे को नियुक्ति मिल जाए। मैंने रवींद्र का रिकॉर्ड जाँचा था, अंक काफी कम थे। मैंने उन्हें समझाया थe कि मैं उसूलों का पक्का अधिकारी हूँ, योग्य व्यक्ति को ही नियुक्ति दूँगा। अब उनके साथ मास्टर जी का आना मेरी समझ में आ गया था। हालात आदमी को कितना विवश बना देते है। यही मास्टर जी जो एक ज़माने में उसूलों के पक्के थे। हमेशा कहते थे, "अपने काम को इतनी निपुणता से करो कि सामने वाले को तुम्हें गलत साबित करने का मौका ही न मिल पाए।" उन्हीं के उसूल तो मैंने अपनी जिन्दगी में उतर लिए थे और आज वे ही मास्टर जी मेरे सामने खड़े थे, एक अदनी सी नौकरी के लिए सिफारिश लेकर?

"ठीक है, मैं ध्यान रखूँगा, वैसे भी मास्टर जी साथ आए है, तो और कुछ कहने की जरुरत है ही नहीं।" मेरे शब्दों में न चाहते हुए भी व्यंग्य का पुट उभर आया था जिसे मास्टर जी ने समझ लिया था और उनकी हालत और भी दयनीय हो गए थी, वे विदा होने लगे तो मैंने अपना कार्ड निकाल कर मास्टर जी के हाथ में थमा दिया..." अभी शहर में है, तो घर जरूर आइए मास्टर जी "

मास्टर जी ने काँपते हाथों से कार्ड थाम लिया था। उनके जाने के बाद मैं बड़ा अस्वस्थ महसूस करता रहा। सहज होने की कोशिश में एक पत्रिका उलटने लगा कि दरबान ने आकर बताया, "साहब, कोई आपसे मिलने आये हैं।"
"उन्हें ड्राइंग रूम में बिठाओ, मैं आता हूँ " कहकर मैं हाउस कोट पहनकर बाहर आया .. एक आश्चर्य मिश्रित धचका सा लगा... "अरे मास्टर जी , आप? आइए ना.. "

"नहीं बेटा, ज्यादा वक्त नहीं लूँगा तुम्हारा," मास्टर जी की आवाज में कम्पन मौजूद था। "सुबह उन लोगों के साथ मुझे देखकर तुम्हारे दिल पर क्या गुज़री होगी, मैं समझ सकता हूँ। मेरे ही द्वारा दी गई शिक्षा को मैं ही झुठलाने लगूँ तो यह सचमुच गुनाह है बेटा,, पर क्या करता, मजबूरी बाँध लाई मेरे पैर यहाँ तक रवींद्र का बाप मेरा दूर रिश्ते का भतीजा है। मेरे बच्चों ने आलस - आवारगी में सारे जमीन- जायदाद गँवा दी। मेरे अकेले की पेंशन पर क्या घर चलता ? उस पर पत्नी की बीमारी.. ढेरों रुपये का कर्जदार हो गया मैं ... मकान भी गिरवी पड़ा है। ब्याज देने के तो पैसे नहीं, असल कहाँ से देता ? तभी रवींद्र का बाप बोला कि यदि उसका जरा सा काम कर दूँ तो मेरा मकान छुडा देगा। कम से कम रहने का ठौर हो जायेगा, यही लालच यहाँ खींच लाया बेटा। पर तुम्हें देखकर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। कुछ मसले ऐसे होते हैं जो समझौते के लायक नहीं होते। उनकी गरिमा कायम रहनी ही चाहिए। बेटा, तुम रवींद्र को मेरे कहने से नौकरी मत देना। अगर ठीक समझो, तभी उसे रखना।" कहकर मास्टर जी बाहर को चल पड़े थे.. मैं बुत बना खड़ा रह गया था..!!

बारिश..!!

पाठशाला से बाहर निकलकर सनी ने भयभीत निगाहों से आसमान की तरफ देखा। उसके दिल की धड़कन अचानक बहुत तेज हो गई थी। पूरा का पूरा आसमान काले बादलों से ढँका हुआ था और दूर पूरब की ओर बारिश शुरू हो चुकी थी। उसके पास छतरी नहीं थीं। यद्यपि सबेरे ही उसे लगा था कि वर्षा होने वाली है परंतु माँगने पर पिता ने गुम होने के डर से उसे छतरी नहीं दी थी। अब तो उसे भीगते हुए ही जाना होगा। फिर भी सच में उसे इस बात की चिंता उतनी नहीं थी कि अगर वह पानी में भींग गया तो उसे बुखार चढ़ जायेगा या सर्दी लग जायेगी, बल्कि वह इस बात से अधिक उद्विग्न था कि अगर मेह के कीचड़ में उसका नया जूता खराब हो गया तो पिता उसे बहुत मारेगा।

उसने देखा अब बारिश पूर्व की ओर से चलती हुई उसके बिलकुल करीब तक पहुँच गई थी। वह एकबारगी कुछ भी निर्णय नहीं कर पाया कि उसे मकान में छिप जाना चाहिए और पानी रुकने तक इंतजार करना चाहिए या तेजी से घर की ओर दौड़ पड़ना चाहिए। मगर बादल देखकर उसे लगा कि कल सबेरे से पहले तक झड़ी खत्म होने के कोई आसार नहीं हैं। फिर यह भी पक्का है कि वह कितना भी तेज दौड़े तो आधे घंटे से पहले तो घर नहीं पहुँच सकता है। फिर भी उसने तेजी से दौड़ना शुरू कर दिया। तनिक देर में ही पानी घना हो गया। वर्षा की मोटी–मोटी बूँदें उसके सिर पर ओले की तरह पड़ रही थीं पर उसने महसूस किया कि उसकी पीठ पर बूँदें नहीं पड़ रही क्योंकि पीठ पर किताबों का बस्ता उसकी ढाल बना हुआ था। तब उसे ध्यान आया कि नया जूता तो कीचड़ से भरकर सिर्फ कुछ खराब हो जायेगा लेकिन किताबें तो पूरी गल जायेंगी। उसने सोचा कि आज उसे नया जूता खराब करने और पुरानी किताब गलाने के जुर्म में पिछले सभी दिनों से अधिक पिटाई लगेगी।

वह तेजी से दौड़ता जा रहा था। हवा और पानी भी जैसे एक दूसरे से प्रतिद्वन्द्विता कर रहे थे। उसकी बगल से गाड़ियाँ सर्र–सर्र गुजर रही थीं। मोटर की गुर्र–गों जब उसके नजदीक आती वह आंखें बन्द कर लेता और गाड़ी के तेज पहियों से उड़ा कीचड़ मिला पानी कचाक से उसके कपड़ों को रंग देता।

उसने अब तक सिर्फ जूते और किताबों की चिंता की थी, पर देखा कि कपड़े तो उससे भी पहले खराब हो गये हैं। उसने सोचा अगर उसकी माँ जिन्दा होती तो शायद आज वह पिटने से बच जाता। उसने देख रखा था कि पड़ोस का पिता जब अपने बच्चों को कभी पीटता है तो उनकी माँ दौड़ कर उन्हें बचाने आ जाती है। मगर अब यहाँ तो कोई उपाय नहीं हैं। आज तो उसे तीन–तीन जुर्मों की सजा भुगतनी है।

पक्की सड़क अब समाप्त हो चुकी थी। अब वह कच्ची सड़क पर दौड़ रहा था। अभी दस मिनट से कम का रास्ता नहीं होगा। वह दौड़-दौड़ कर थक भी चुका था पर उसने दौड़ना जारी रखा। कच्ची सड़क का कीचड़ उसके जूतों में घुस गया और जूते के तलवे से भी मिट्टी का लोंदा चिपक गया था, इससे जूता बहुत भारी हो गया था। पर चलने के सिवाय कोई उपाय नहीं था। उसकी रफ्तार अब थोड़ी धीमी हो गई थी। ज्यों ज्यों घर नज़दीक आ रहा था, उसका भय बढ़ता जा रहा था। जब चलते–चलते अंततः घर सामने आ गया तो उसने देखा कि पिता पहले ही दफ्तर से लौट चुका था और बाहर बरामदे में ही खड़ा था। पिता को घर पर मौजूद देख कर उसे दुख भी हुआ कि घर इतनी जल्दी क्यों आ गया। उसने अपने जूते की ओर देखा और तन पर गीले कपड़ों को महसूस करते हुए बस्ते की गीली किताबों के बारे में सोचा।

फिर आतंकित आँखों से पिता को देखते हुए आगे बढ़ा। उसे लगा कि उसके पाँव उठ ही नहीं रहे हैं। जैसे किसी चीज से चिपक गये हों। पिता ने सनी को सजल नेत्रों से देखते हुए सोचा कि इसकी माँ अगर होती तो सुबह उसे जरूर छतरी ले जाने की इज़ाज़त दे दी होती। उसे पश्चाताप होने लगा कि बच्चे को भी अपने जैसा भुलक्कड़ समझकर उसने छतरी नहीं दी और गुम जाने के डर से खुद भी छतरी लेकर नहीं गया। दफ्तर से भींगता हुआ ही आया। यदि बच्चे को उसने छतरी दे दी होती तो निश्चय ही सम्भाल कर रखता।

पिता को अचानक उस पर बहुत स्नेह हो आया। उसने आगे बढ़कर उसे गोद में उठा लिया। सनी को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर जब उसे पूरा यकीन हो गया कि वह पिता की गोद में हैं तो उसे इसका कारण एकदम समझ में नहीं आया।

पिता ने घर के भीतर ले जाकर उसे मेज पर बिठा दिया और उसके जूते के फीते खोलने लगा। सनी की नजर कोने में रखे पिता के जूते पर गई। उन जूतों में उसके जूते से भी अधिक कीचड़ था। खूँटी से टंगे पिता के कपड़े मिट्टी से एकदम सने थे। उसने तभी मेज पर रखी पिता के दफ्तर की फाइल देखी, वह बिल्कुल गल चुकी थी..!!

थैंक्यू..!!

'एक मलाई कोफ्ता, एक कड़ाई पनीर, एक दाल मक्खनी और साथ में नान।'
आर्डर करने के बाद वे बीस मिनट प्रतीक्षा करते रहे। पानी आया, प्लेटें लगी, नेपकिन बिछे, बैरा खाना लाया-सभी व्यस्त हो गए। बीच में एक बार चम्मच बजाना पड़ा। लाल कोट वाला बैरा तेज़ी से आया-
'यस सर'
'एक दाल और तीन नान प्लीज़'
जब तक वह यह सब लाया बाकी की चीज़ें ठंडी हो चुकी थी।
'थैंक्यू' उन्होंने कहा।
यह मालरोडीय सभ्य परिवार जब उठा तो प्लेटों में जूठन का नाम तक नहीं था।
आईसक्रीम पार्लर से आईसक्रीम ली, थैंक्यू बोला और गाड़ी में बैठकर खाने लगे।


विभा ने खाना बनाया, डायनिंग टेबल पर लगाया और पति बच्चों की प्रतीक्षा करने लगी। पालक पनीर, कड़ाई गोभी, दहीं वड़े, गाजर का हलवा, पूड़ियाँ वगैरह। अमित ने ढेर सारी गोभी प्लेट में डाली और आलू जूठन की तरह फेंक दिए। निधि ने दहीं वड़े से नाक सिकोड़ा। कृति ने एक कम फूली पूड़ी को ऐसे पकड़ा, जैसे उसमें दोष बनाने वाले का हो। खाने के बाद सभी गाजर का हलवा ऐसे प्लेटों में डालने लगे जैसे उनको ओवर ईटिंग कराने का षडयंत्र रचा जा रहा हो। विभा पर खाना खाने का अहसान लादते हुए सभी धीरे-धीरे उठ गए। किसी के पास उसके लिए थैंक्यू नहीं था..!!

क्या सोचकर दोस्ती का हाथ आगे बढाते हो..!!

क्या सोचकर दोस्ती का हाथ आगे बढाते हो,
मुझे तो अपना नाम भी, बताना नही आता॥

कोई तो आ जाए जब तुम बात करते हो,
मुझे बात करने का बहाना नही आता॥

तुम शिकवे भी मुहब्बत से कर लेते हो,
मुझे तो प्यार भी जताना नही आता॥

कोना बता दे दिल का जो बदरंग देखते हो,
मुझे बेवजह पानी बहाना नही आता॥

जिस से दिल मिलते नही क्यूँ हाथ मिलाते हो,
मुझे बेवजह दोस्ती निभाना नही आता॥

क्या करू जो आंखों को अश्कवार करते हो,
मुझे दोस्तों पर नश्तर, चलाना नही आता॥

फ़िर क्या सोचकर दोस्ती का हाथ आगे बढाते हो,
मुझे झूठे हसीं ख्वाब दिखाना नही आता॥

रुक गई साँसे निकालने से पहले..!!

रुक गई साँसे निकालने से पहले,
कहा एक बार उससे मिललूं चलने से पहले,

कुछ पल गुजार लूं उसकी बाहों में,
ज़िन्दगी के ढलने से पहले,

बहक जाऊं उसके आगोश में,
किसी और के साथ संभालने से पहले,

पत्थर बना लूं खुद को तो अच्छा है,
एहसास जग न जाए यादों के बहल ने से पहले,

मोहब्बत फिर भी करता तुझसे जो खबर होती,
इतना दर्द मिलेगा इस मोड़ के गुज़रने से पहले,

बस इश्क का खुमार हो मुझमे,
डूब जाऊं इस नशे में इसके उतरने से पहले,

सच होने की शर्त रखी कहाँ थी मैंने,
खवाबों की सीडियां चड़ने से पहले,

क्या पता था डूब कर ही पार लग जाउंगा,
इस इश्क के समुन्दर में गिरने से पहले..!!

जो लोग जन-बुझाकर नादान बन गए..!!

जो लोग जन-बुझाकर नादान बन गए
मेरा ख्याल है की वो इन्सान बन गए ॥


हसंते हैं हमको देख के अखाबे-आगही
हम आपके मिजाज की पहचान बन गए ॥


मंझदार तक पहुंचना तो हिम्मत की बात थी
साहिल के आस पास ही तूफान बन गए ॥


इंसानियत की बात तो इतनी है शेख जी
बद्केश्मतो से आप भी इन्सान बन गए ॥


कांटे बहुत थे दमन-फितरत में ऐ अदम
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गए ॥

Friday 17 October 2014

ज़मीन भी जाती रही और आसमान भी ना रहा..!!

ज़मीन भी जाती रही और आसमान भी ना रहा
पर कटे परिंदे में उड़ने का अरमान भी ना रहा,

पहले तो अपने होने का वहम होता था उसे
अब तो ये सूरत है उसका ये गुमान भी ना रहा,

महलों में रहने की मैने ख्वाहिश क्या करी
हाय! वो पुरखों का कच्चा मकान भी ना रहा,

दैर-ओ-हरम तो कभी वाइज़-ओ-रिंद मिलते रहे
इन सब में ऐसा उलझा अब वो इन्सान भी ना रहा,

पायल क्या ये इल्म नहीं, झंकार की दरकार है
कोई उन्हे समझाये इश्क़ इतना आसान भी ना रहा,

उसको भुलाते भुलाते खुद की पहचान खो गई
तीर छूटा ये कुछ ऐसा के कमान भी ना रहा..!!

बाद मुद्दत उसे देखा लोगो..!!

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो

खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो

उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो

अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो

दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो

रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो..!!

हाल-ऐ-दिल अपना सुना लूँ तो चले जाना..!!

हाल-ऐ-दिल अपना सुना लूँ तो चले जाना
तुमको हमराज़ बना लूँ तो चले जाना,

कब तलक छुपाउंगा अपनी उल्फात तुमसे
इकरार- ऐ-महोब्बत जो कर लूँ तो चले जाना,

शर्म-ओ-हया से रुख पर जैसे बिखरी ज़ुल्फ़े
उनको रुख पर में सजा लूँ तो चले जाना,

तेरे हुस्न पर फ़िदा है यहाँ दीवाने कई
तुम को नज़रो में छुपा लूँ तो चले जाना,

जाम बहोत पीये तेरी कातिल नज़रो से मैने
एक जाम तुजे होठों से पिला लूँ तो चले जाना,

एक मुद्दत से प्यासा हूँ में तेरी चाहत का
तुज को एक बार सीने से लगा लूँ तो चले जाना,

तुम मुझ को ही चाहो और दुनिया भुला दो
जादू ये इश्क का चला लूँ तो चले जाना,

तुम को दिल में बसा कर लिखी है यह “ग़ज़ल”
धीरे से उसको गुन-गुना लूँ तो चले जाना..!!

ज़िन्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहां है..!!

ज़िन्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहां है
नाम लेकर प्यार से मुझ को बुलाया ही कहां है?

टूट कर मेरा बिखरना, दर्द की हद से गुज़रना
दिल के आईने में ये मंज़र दिखाया ही कहां है?

शीशा-ए-दिल तोड़ना है तेरे संगे-आसतां पर
तेरे दामन पे लहू दिल का गिराया ही कहां है?

ख़त लिखे थे ख़ून से जो आंसुओं से मिट गये वो
जो लिखा दिल के सफ़े पर, वो मिटाया ही कहां है?

जो बनाई है तिरे काजल से तस्वीरे-मुहब्बत
पर अभी तो प्यार के रंग से सजाया ही कहां है?

देखता है वो मुझे, पर दुश्मनों की ही नज़र से
दुश्मनी में भी मगर दिल से भुलाया ही कहां है?

ग़ैर की बाहें गले में, उफ़ न थी मेरी ज़ुबां पर
संग दिल तू ने अभी तो आज़माया ही कहां है?

जाम टूटेंगे अभी तो, सर कटेंगे सैंकड़ों ही
उसके चेहरे से अभी पर्दा हटाया ही कहां है?

उन के आने की ख़ुशी में दिल की धड़कन थम ना जाये
रुक ज़रा, उनका अभी पैग़ाम आया ही कहां है..!!

उदार दृष्टि..!!

पुराने जमाने की बात है। ग्रीस देश के स्पार्टा राज्य में पिडार्टस नाम का एक नौजवान रहता था। वह पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान बन गया था।

एक बार उसे पता चला कि राज्य में तीन सौ जगहें खाली हैं। वह नौकरी की तलाश में था ही, इसलिए उसने तुरन्त अर्जी भेज दी।
लेकिन जब नतीजा निकला तो मालूम पड़ा कि पिडार्टस को नौकरी के लिए नहीं चुना गया था।
जब उसके मित्रों को इसका पता लगा तो उन्होंने सोचा कि इससे पिडार्टस बहुत दुखी हो गया होगा, इसलिए वे सब मिलकर उसे आश्वासन देने उसके घर पहुंचे।

पिडार्टस ने मित्रों की बात सुनी और हंसते-हंसते कहने लगा, “मित्रों, इसमें दुखी होने की क्या बात है? मुझे तो यह जानकर आनन्द हुआ है कि अपने राज्य में मुझसे अधिक योग्यता वाले तीन सौ मनुष्य हैं।”

न देने वाला मन..!!

 एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देख कर दूसरों को लगता है कि इसे पहले से किसी ने दे रखा है। पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।

अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारे दरिद्र दूर हो जाएंगे, जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया, उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी की तो मानो सांसें ही रुकने लगीं। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उलटे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुन: याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला, मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे कर उसने दो दाने जौ के निकाले और उन्हें राजा की चादर पर डाल दिया। उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली, मगर वे दो दाने देने का मलाल उसे सारे दिन रहा। शाम को जब उसने झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ वह ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। उसे समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है। वह पछताया कि काश! उस समय राजा को और अधिक जौ दी होती, लेकिन नहीं दे सका, क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी..!!

रास्तों पे सब ही पहचाने से लोग हैं..!!

रास्तों पे सब ही पहचाने से लोग हैं
देखो करीब से तो अंजाने से लोग हैं

दिल में झांकोगे तो बस तन्हाईयां ही हैं
महफ़िल सजी है फिर भी वीराने से लोग हैं

करते हैं इश्क़ जानकर अंजाम इश्क़ का
नासमझ से लोग दीवाने से लोग हैं

जिसका वजूद ही नहीं, है उस से मोहब्बत
शम्मा नहीं है फिर भी परवाने से लोग हैं

हैं अश्क़ आह दर्द ही तन्ख्वाह इश्क़ की
छलके गिरे टूटे से पैमाने से लोग हैं

दिखता हो चाहे जो, है कुछ और मुख़्तसर
अपनी हक़ीक़तों के अफ़साने से लोग हैं

हर एक बिक रहा है ज़रूरत के भाव से
अस्ल में देखो तो चाराने से लोग हैं

टूटे हुए छूटे हुए लम्हों का जोड़ हैं
टुकड़ों में जोड़े बिखरे काशाने से लोग हैं

हर एक शय नशा है हर एक शय जुनूं
ज़िदगी साक़ी है मैख़ाने से लोग हैं

आज भी रोते हैं इक छोटी सी बात पर
बदले से ज़माने में पुराने से लोग हैं

छूते हैं आसमां और मिट्टी में पाँव हैं
महल की दीवारों में तहखाने से लोग हैं

अब आप ही समझाइये ये राज़-ए-ज़िंदगी
बाकी जहां में सब ही बचकाने से लोग हैं..!!

बेवफाई की अब इन्तहा - सी हो गई है..!!

बेवफाई की अब इन्तहा - सी हो गई है ,
तुझसे जुदा होकर जीने की आदत - सी हो गई है।

तुम लौटकर आओगी , हम फिर से मिलेंगे शायद,
रोज़ दिल को बहलाने की आदत - सी हो गई है।

तेरे वादों पर क्या भरोसा करते हम,
अब तो धोखा खाने की आदत-सी हो गई है।

खुशी में भी क्या मुस्कुराते हम
अब तो खुशी में भी रोने की आदत-सी हो गई है।

कहां चली गई तू अकेला मुझे छोड़कर,
अब तो तन्हाइयों में रहने की आदत-सी हो गई है।

हर मोड़ पर मिलती हैं ग़मों की परछाइयां,
अब तो ग़मों से समझौते की आदत-सी हो गई है..!!

क्या-क्या रंग दिखाती है जिन्दगी..!!

क्या-क्या रंग दिखाती है जिन्दगी,
अपने बिछ्डो की याद दिलाती है जिन्दगी!

रो- रो कर भी हँसना सिखाती हैं जिन्दगी,
फूलो में रहकर कांटो पर चलना सिखाती है जिन्दगी!

बेगानों को भी अपना बनाती है जिन्दगी,
दूर रहकर भी पास होने का एहसास कराती है जिन्दगी!

एक पल में हजार रंग दिखाती है जिन्दगी,
कभी पतझड़ कभी गुलशन बन जाती है जिन्दगी!

फूलो की तरह मुरझाती है जिन्दगी,
तितली की तरह उड़ जाती है जिन्दगी!

गिरगिट की तरह रंग बदल जाती है जिन्दगी,
क्यो न इसे जिया जाय,
क्योकि सब कुछ खोकर भी जीना सिखाती है जिन्दगी..!!

उसका चेहरा भी सुनाता हैं कहानी उसकी..!!

उसका चेहरा भी सुनाता हैं कहानी उसकी;
चाहता हूँ कि सुनूं उससे जुबानी उसकी;
वो सितमगर है तो अब उससे शिकायत कैसी;
क्योंकि  सितम करना भी आदत हैं पुरानी उसकी,

वो रूठे इस कदर की मनाया ना गया;
दूर इतने हो गए कि पास बुलाया ना गया;
दिल तो दिल था कोई समंदर का साहिल नहीं;
लिख दिया था जो नाम वो फिर मिटाया ना गया,

चाहत  में जिस की जमाने को भुला रखा है,
ये मालुम नहीं किसे उसने दिल में बसा रखा है,
ये मालुम है की वो आसमाँ है और मै जमीन,
फिर भी आँखों में उसी का सपना सजा रखा है,

गुलसन है अगर सफ़र जिंदगी का, तो इसकी मंजिल समशान क्यों है ?
जब जुदाई है प्यार का मतलब, तो फिर प्यार वाला हैरान क्यों है ?
अगर जीना ही है मरने के लिए, तो जिंदगी ये वरदान क्यों है ?
जो कभी न मिले उससे ही लग जाता है दिल,
आखिर ये दिल इतना नादान क्यों है..!!

अगर वो मांगते हम जान भी दे देते,
मगर उनके इरादे तो कुछ और ही थे,
मांगी तो प्यार की हर निशानी वापिस मांगी,
मगर देते वक़्त तो उनके वादे कुछ और ही थे,

ए खुदा आज ये फ़ैसला कर दे, 
उसे मेरा या मुझे उसका कर दे.
बहुत दुख सहे हे मैने, 
कोई ख़ुसी अब तो मूक़दर कर दे.
बहुत मुश्किल लगता है उससे दूर रहना, 
जुदाई के सफ़र को कम कर दे.
जितना दूर चले गये वो मुझसे, 
उसे उतना करीब कर दे.
नही लिखा अगर नसीब मे उसका नाम, 
तो ख़तम कर ये ज़िंदगी और मुझे फ़ना कर दे..!!

वो समझें या ना समझें मेरे जजबात को..!!

वो समझें या ना समझें मेरे जजबात को,
मुझे तो मानना पड़ेगा उनकी हर बात को,
हम तो चले जायेंगे इस दुनिया से,
मगर आंसू बहायेंगे वो हर रात को,

जो आपने न लिया हो, ऐसा कोई इम्तहान न रहा,
इंसान आखिर मोहब्बत में इंसान न रहा,
है कोई बस्ती, जहां से न उठा हो ज़नाज़ा दीवाने का,
आशिक की कुर्बत से महरूम कोई कब्रिस्तान न रहा,

कोई रिश्ता टूट जाये दुख तो होता है,
अपने हो जायें पराये दुख तो होता है,
माना हम नहीं प्यार के काबिल
मगर इस तरह कोई ठुकराये दुख तो होता है,

बिकता अगर प्‍यार तो कौन नहीं खरीदता
बिकती अगर खुशियां तो कौन उसे बेचता
दर्द अगर बिकता तो हम आपसे खरीद लेते
और आपकी खुशियों के लिए हम खुद को बेच देते..!!

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं..!!

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं 
तो ख़्यालों में बहुत दूर निकल जाते हैं 

गर वफ़ाओं में सदाक़त भी हो और शिद्दत भी 
फिर तो एहसास से पत्थर भी पिघल जाते हैं

उसकी आँखों के नशे में हैं जब से डूबे 
लड़-खड़ाते हैं क़दम और संभल जाते हैं 

बेवफ़ाई का मुझे जब भी ख़याल आता है 
अश्क़ रुख़सार पर आँखों से निकल जाते हैं 

प्यार में एक ही मौसम है बहारों का मौसम 
लोग मौसम की तरह फिर कैसे बदल जाते हैं..!!

Sunday 28 September 2014

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू..!!

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
 
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
 
अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’
माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है
 
मुसीबत के दिनों में हमेशा साथ रहती है
पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है
 
जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा
 
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
 
ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया
 
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
 
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
 
हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए
माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे
 
ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे
माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे
 
जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई
देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई
 
यहीं रहूँगा कहीं उम्र भर न जाउँगा
ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा
 
अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
 
कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
 
दिन भर की मशक़्क़त से बदन चूर है लेकिन
माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गई है
 
दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों मील जाती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है
 
दिया है माँ ने मुझे दूध भी वज़ू करके
महाज़े-जंग से मैं लौट कर न जाऊँगा
 
बहन का प्यार माँ की ममता दो चीखती आँखें
यही तोहफ़े थे वो जिनको मैं अक्सर याद करता था

 बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है
 
खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही
 
मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंठों पर लरज़ती है
किसी बच्चे का जब पहला सिपारा ख़त्म होता है
 
मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं
सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़—ए—माँ रहने दिया
 
माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
 
मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है

बुज़ुर्गों का मेरे दिल से अभी तक डर नहीं जाता
कि जब तक जागती रहती है माँ मैं घर नहीं जाता
 
अब भी रौशन हैं तेरी याद से घर के कमरे
रौशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको
 
मेरे चेहरे पे ममता की फ़रावानी चमकती है
मैं बूढ़ा हो रहा हूँ फिर भी पेशानी चमकती है
 
आँखों से माँगने लगे पानी वज़ू का हम 
काग़ज़ पे जब भी देख लिया माँ लिखा हुआ
 
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ सज़दे में रहती है
 
चलती फिरती आँखों से अज़ाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है..!!