Monday 29 June 2015

मुहाज़िर नामा..!!


मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।

कई दर्जन कबूतर तो हमारे पास ऐसे थे,
जिन्हें पहना के हम चांदी का छल्ला छोड़ आए हैं।

वो टीपू जिसकी कुर्बानी ने हमको सुर्खुरू रक्खा,
उसी टीपू के बच्चों को अकेला छोड़ आए हैं।

बहुत रोई थी हमको याद करके बाबरी मसजिद,
जिसे फि़रक़ा-परस्तों में अकेला छोड़ आए हैं।

अगर हिजरत न की होती तो मस्जिद भी नहीं गिरती,
रवादारी की जड़ में हम ही मट्ठा छोड़ आए हैं।

न जाने क्यों हमें रह-रह के ये महसूस होता है,
कफ़न हम लेके आए हैं जनाज़ा छोड़ आए हैं।

गुज़रते वक़्त बाज़ारों से अब भी ध्यान आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं।

कहां लाहौर को हम शहरे-कलकत्ता समझते थे,
कहां हम कहके दुश्मन का इलाक़ा छोड़ आए हैं।

अभी तक हमको मजनूं कहके कुछ साथी बुलाते हैं,
अभी तक याद है हमको कि लैला छोड़ आए हैं।

मियां कह कर हमारा गांव हमसे बात करता था,
ज़रा सोचो तो हम भी कैसा ओहदा छोड़ आए हैं।

वो इंजन के धुएं से पेड़ का उतरा हुआ चेहरा,
वो डिब्बे से लिपट कर सबको रोता छोड़ आए हैं।

अगर हम ध्यान से सुनते तो मुमकिन है पलट जाते,
मगर ‘आज़ाद’ का ख़ुतबा अधूरा छोड़ आए हैं।

वो जौहर हों,शहीद अशफ़ाक़ हों, चाहे भगत सिंह हों,
हम अपने सब शहीदों को अकेला छोड़ आए हैं।

हमारा पालतू कुत्ता हमें पहुंचाने आया था,
वो बैठा रो रहा था उसको रोता छोड़ आए हैं।

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं।

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं।

वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं।

अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं।

भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं।

ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं।

हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं।

महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं।

वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं।

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आये,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं।

हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं।

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं।

उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं।

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं।

उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आये हैं।

हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आये हैं।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं।

कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आये हैं।

वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।

अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आये हैं।

मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आये हैं।

जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आये हैं।

महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आये हैं।

तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आये हैं।

सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आये हैं।

हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आये हैं।

गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं।

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आये हैं।

तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आये हैं।

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आये हैं।

हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आये हैं..!!

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