Saturday 17 September 2011

हो गई है पीर


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

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जमाने को रास्ता बताने के लिए

हर रोज एक नया चेहरा क्यों चाहिए,

इंसानों को इंसानों से बचाने के लिए

रोज किसी नए चौकीदार का पहरा क्यों चाहिए,

यकीनन इस धरती पर लोग

कभी भरोसे लायक नहीं रहे

वरना कदम दर कदम

धोखे से बचने के लिए एक ईमानदार क्यों चाहिए।

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