Tuesday 23 September 2014

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीँ जाता.!!

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीँ जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती है निगाहेँ
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यूँ नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीँ सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते है जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता

वो नाम जो बरसों से ना चेहरा ना बदन है
वो ख्वाब नगर है तो बिखर क्यूँ नहीं जाता

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