ज़मीन भी जाती रही और आसमान भी ना रहा
पर कटे परिंदे में उड़ने का अरमान भी ना रहा,
पहले तो अपने होने का वहम होता था उसे
अब तो ये सूरत है उसका ये गुमान भी ना रहा,
महलों में रहने की मैने ख्वाहिश क्या करी
हाय! वो पुरखों का कच्चा मकान भी ना रहा,
दैर-ओ-हरम तो कभी वाइज़-ओ-रिंद मिलते रहे
इन सब में ऐसा उलझा अब वो इन्सान भी ना रहा,
पायल क्या ये इल्म नहीं, झंकार की दरकार है
कोई उन्हे समझाये इश्क़ इतना आसान भी ना रहा,
उसको भुलाते भुलाते खुद की पहचान खो गई
तीर छूटा ये कुछ ऐसा के कमान भी ना रहा..!!
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